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होली के बाद घर लौटना मुश्किल, लेकिन पापी पेट का सवाल है!

रोहित कुमार सोनू 

होली भारत का सबसे रंगीन और हर्षोल्लास से भरा त्योहार है। खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और पूर्वी भारत के इलाकों में होली का उत्साह देखने लायक होता है। घर-परिवार, दोस्तों और गांव-मोहल्ले के साथ रंगों की मस्ती, गुझिया, ठंडाई और लोकगीतों का मज़ा कुछ अलग ही होता है। लेकिन जैसे ही त्योहार खत्म होता है, हजारों लोगों को फिर से अपने काम-धंधे पर लौटने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों से लाखों लोग रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, बेंगलुरु जैसे महानगरों का रुख करते हैं। ये प्रवासी मजदूर, छोटे व्यापारी, रिक्शा चालक, गार्ड, होटल कर्मचारी और अन्य मेहनतकश लोग सालभर मेहनत करते हैं और त्योहारों पर ही अपने घर लौट पाते हैं। लेकिन त्योहार के चंद दिन बीतते ही उन्हें फिर से अपने पेट और परिवार की जिम्मेदारियों के लिए शहरों की ओर निकलना पड़ता है।

त्योहार खत्म, घर से फिर दूर जाने की मजबूरी

होली के बाद पटना, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, गया, सहरसा, समस्तीपुर जैसे स्टेशनों और बस स्टैंडों पर भारी भीड़ देखने को मिलती है। हजारों की संख्या में लोग ट्रेनों और बसों में ठसाठस भरे होते हैं।

लेकिन समस्या यही खत्म नहीं होती। होली के बाद ट्रेनों में जगह मिलना मुश्किल हो जाता है। बिहार से दिल्ली, मुंबई और हैदराबाद जाने वाली ट्रेनों की टिकटें महीनों पहले ही फुल हो जाती हैं। जनरल बोगियों में तो पैर रखने तक की जगह नहीं मिलती। मजबूरी में लोग बसों, ट्रकों और अन्य साधनों से सफर करने को मजबूर हो जाते हैं।

सफर की परेशानियां और सरकार की अनदेखी

हर साल त्योहारों के दौरान स्पेशल ट्रेनों की मांग की जाती है, लेकिन रेलवे द्वारा चलाई गई कुछ गिनी-चुनी स्पेशल ट्रेनें इस भारी भीड़ के सामने नाकाफी साबित होती हैं। लोगों को दलालों के हाथों महंगे टिकट खरीदने पड़ते हैं या फिर जान जोखिम में डालकर ट्रेन की छतों और दरवाजों पर लटककर सफर करना पड़ता है।

बिहार और पूर्वी भारत से दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद और बेंगलुरु जाने वाले लोगों की संख्या करोड़ों में है, लेकिन परिवहन सुविधाओं का बुरा हाल है। बसों और ट्रेनों में सीट मिलना आसान नहीं होता, और जो टिकट उपलब्ध होते हैं, उनकी कीमतें आसमान छूने लगती हैं।

दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद: सपनों के शहर या मजबूरी का ठिकाना?

दिल्ली, मुंबई और हैदराबाद जैसे शहर लाखों बिहारी मजदूरों और कामगारों का दूसरा घर बन चुके हैं। ये शहर उन्हें रोजगार तो देते हैं, लेकिन बदले में उनसे बहुत कुछ छीन भी लेते हैं—परिवार का साथ, गांव की मिट्टी की खुशबू और अपनों के बीच रहने का सुकून।

त्योहारों में घर जाने के बाद दोबारा शहर लौटते समय कई लोगों की आंखों में आंसू होते हैं। बच्चों को पीछे छोड़कर, बूढ़े माता-पिता को अकेला छोड़कर फिर से सपनों के शहर में लौटना एक दर्द भरा अहसास होता है। लेकिन क्या करें? पापी पेट का सवाल जो है!

सरकार कब देगी समाधान?

बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों से हर साल लाखों लोग रोजी-रोटी की तलाश में बाहर जाते हैं। अगर इन राज्यों में पर्याप्त उद्योग और रोजगार के अवसर हों, तो शायद लोगों को इतनी दूर जाने की जरूरत न पड़े। सरकार को चाहिए कि वह बिहार और अन्य पिछड़े राज्यों में फैक्ट्रियों, आईटी पार्कों, कृषि-उद्योगों और स्टार्टअप्स को बढ़ावा दे, ताकि लोग अपने घर के पास ही रोजगार पा सकें।

निष्कर्ष

होली के बाद हर साल लाखों बिहारी फिर से अपने काम पर लौट जाते हैं, मन में त्योहार की यादें और आंखों में अपने गांव-मोहल्ले की तस्वीरें लिए। यह सिलसिला कब थमेगा? शायद तभी जब बिहार और अन्य पूर्वी राज्यों में भी रोजगार के पर्याप्त अवसर होंगे और किसी को अपने घर-परिवार से दूर जाने की मजबूरी नहीं होगी।

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