रोहित कुमार सोनू
होली—रंगों का त्योहार, जो कभी अपनापन, मेलजोल और खुशी का प्रतीक हुआ करता था, आज वक्त के साथ बदल गया है। पहले जहाँ होली का उल्लास कई दिनों तक चलता था, वहीं अब यह बस एक दिन की औपचारिकता बनकर रह गई है। ना तो वो रंग रहे, ना ही वो होली का पुराना अंदाज।
पहले की होली: रंग, संगीत और अपनापन
पुराने समय में होली की तैयारियाँ हफ्तों पहले से शुरू हो जाती थीं। मोहल्लों में ढोल-मंजीरे बजते, फाग गाए जाते, और चारों तरफ रंगों की बहार होती। घरों में गुझिया, मालपुए और ठंडाई की खुशबू बिखरी रहती थी। बच्चे पक्के रंगों से खेलते थे, तो बड़े अबीर-गुलाल से होली का आनंद लेते थे। सबसे खास बात थी कि इस त्योहार में कोई पराया नहीं होता था—हर कोई अपनेपन से रंगों में सराबोर हो जाता था।
अब की होली: औपचारिकता बनता जा रहा त्योहार
आज की होली में वह जोश और अपनापन धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। लोग अब एक-दूसरे के घर जाने के बजाय सोशल मीडिया पर "हैप्पी होली" लिखकर त्योहार मना लेते हैं। केमिकल वाले रंगों के डर से लोग रंगों से दूरी बनाने लगे हैं, और सूखी होली का चलन बढ़ गया है।
बदलाव के पीछे के कारण
1. जीवनशैली में बदलाव – तेज़ रफ्तार जिंदगी में अब लोगों के पास त्योहारों के लिए समय नहीं बचा।
2. रासायनिक रंगों का डर – पहले के प्राकृतिक रंगों की जगह अब हानिकारक केमिकल वाले रंग आ गए, जिससे लोग रंग खेलने से बचने लगे।
3. परिवारों का विघटन – संयुक्त परिवारों की जगह एकल परिवारों ने ले ली, जिससे त्योहारों की रौनक कम हो गई।
4. डिजिटल युग का प्रभाव – अब लोग असल जिंदगी में रंग खेलने के बजाय सोशल मीडिया पर त्योहार मनाने लगे हैं।
क्या हो सकता है समाधान?
अगर हम फिर से वही उत्साह और खुशी पाना चाहते हैं, तो हमें होली का पारंपरिक अंदाज अपनाना होगा। परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताना, प्राकृतिक रंगों का उपयोग करना, और पुराने गीतों और पकवानों के साथ इस त्योहार को मनाना ज़रूरी है।
होली सिर्फ रंगों का त्योहार नहीं, बल्कि रिश्तों को फिर से जीवंत करने का मौका भी है। आइए, इस बार फिर से वही पुरानी होली का आनंद लें—जहाँ ना कोई पराया था, ना कोई बेगाना।
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