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मानसिक समस्या विशेषज्ञ,समाज कल्याण वि.,बिहार: बुजुर्गों को चाहिए आपका सम्मान - डॉ॰ मनोज कुमार




वृद्धावस्था जीवन का वह पङाव है जहाँ हमसबों को एक दिन आकर ठहरना है। वर्तमान समय में समाजिक परिवर्तन पुरजोर तरीके से हो रहा।आम व खास बुजुर्ग भी इस अवस्था में आकर जीवन भर की उपलब्धि पर एक नजर देखने लगते हैं।


 राजेश कुमार वर्मा

पटना / समस्तीपुर ( मिथिला हिन्दी न्यूज  ) । पटना के सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक चिकित्सक डॉ० मनोज कुमार मानसिक समस्या विशेषज्ञ,समाज कल्याण वि०, बिहार के
यह आलेख एक साल के शोध पर आधारित है। इसे समाचारपत्र में प्रकाशित करने को प्रेस को उपलब्ध कराया है।
उन्होंने अपने आलेख में
समाज में बुजुर्गों की अनदेखी भी बङा मसला है। इसपर प्रकाश डालते हुऐ प्रकाशित करने की अपील भी किया ।
वृद्धावस्था जीवन का वह पङाव है जहाँ हमसबों को एक दिन आकर ठहरना है। वर्तमान समय में समाजिक परिवर्तन पुरजोर तरीके से हो रहा।आम व खास बुजुर्ग भी इस अवस्था में आकर जीवन भर की उपलब्धि पर एक नजर देखने लगते हैं। उनकी सोच परिवार के लोगों पर हो जाती है। हर समय वह अपने बच्चों को उचित मार्गदर्शन देते रहते हैं। संयुक्त परिवार में इस तरह के गाइंडेस सिर आंखों पर बिठाया जाता रहा है। आज के संदर्भ में एकल परिवारों में बुजुर्गों की अनदेखी एक बहुत बङा मसला बनता जा रहा। विगत साल से माह जुलाई 2019 तक मेरा अध्ययन ऐसे ही उपेक्षित बुजुर्गों पर किया गया । भारतीय समाज में 60 साल के बाद लोगों को रिटायर माना जाता रहा है। तमाम सरकारी कार्यालयों में ऐसी परंपरा रही है। शैक्षणिक जगत , न्यायिक व्यवस्था तथा कुछ अन्य विभागों को छोड़ दे तो उम्र के साठवें बसंत पार लोगों में काम करने लायक नहीं मानकर घर पर बिठा दिया जाता है। सेवानिवृत होने के बाद भारतीय बुजुर्गों में पेंशन व दुसरे चीजों पर की निर्भरता उनके आत्मविश्वास को झकझोर कर रख देता है।
परिवार की अनदेखी ।

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भारतीय बुजुर्गों में समाजिकता का गुण पाया जाता रहा है। लोगों के साथ जमघट लगाना और समाजिक मुद्दों पर खुलकर अपनी अभिव्यक्ति देना हमारे बुजुर्गों की जीवनशैली का अहम् हिस्सा रहा है। आज के दौर में बेटा-बहू दोनों के कामकाजी होने से उन्हें घर में रखवाले की भूमिका में जीना पङ रहा।शाम में बच्चे के स्कूल से आने और उनके माता -पिता के घर पहुँचने तक इनकी ड्यूटी आम रूप से देखी जा रही है। पटना में 60 अपार्टमेंट में रहने वाले करीब 280 बूढ़े व्यक्तियों की मनोदशा परीक्षण में यह बात सामने आयी की ज्यादातर ओल्ड पर्सन अवसाद व चिंता संबंधी समस्याओं से पीड़ित मिले।

आंकड़े चौकाने वाले ...
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एकल परिवार में रह रहे बुजुर्गों में संयुक्त या कमिटी में शिरकत करने वाले बुजुर्ग लोगों की तुलना में अवसाद पीड़ित ज्यादा देखा गया।मसलन 65 बुजुर्ग इस अध्ययन में ऐसे मिले जो तीव्र चिंतित देखे गये। 85 ऐसे बुजुर्गों को पाया गया जो अपनों द्वारा संपत्ति की लालच में परित्यक्त किये जा चुके थे। 70 ऐसी बुजुर्ग महिला मिली जो बिहार सरकार में बुजुर्गों के लिए मिलने वाले पेंशन का इंतजार कर रहीं थी। 44 ऐसे बुजुर्गों का पता चला जो वृद्धावस्था में होनेवाली बीमारी डिमेंशिया से पीड़ित पाये गये जो घर वाले की नजर में सठिया का तमगा लगाये हुए मिले। हमारे समाज में जब इस बीमारी से कोई बुजुर्ग ग्रसित होते हैं तो उन्हें भूलने की बीमारी हो जाती है। जिसे अपने ही सठियाना जैसे अपमानित शब्दों का इस्तेमाल करके उनके घाव को कुरेदने लगते हैं। मेरे एक साल के अध्ययन में 16 ऐसी बूढी महिलाएं मिली।जिनके बच्चों ने सरकारी वृद्धाश्रम में लाने के उदेश्य से उन्हें तलब कर रखा था।
डिजेनरेटिव समस्या आम।

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हमारे समाज में बुजुर्गों की बातों को सुनने और समझने का चलन इस कदर नीचे होता जा रहा जिसका ताजा उदाहरण राजधानी पटना के बेशकीमती इलाके में देखने को मिला यहाँ रहने वाले एक बुजुर्ग दंपति अपने जीवन भर की कमायी संपत्ति को अनाथालय में दान करने की पेशकश की। माननीय न्यायाधीश के समक्ष यह मामला एक पारिवारिक कोर्ट में आया। हालांकी बेटे के वकील ने भी अपना पक्ष मजबूती से रखा। दंपति पर ही मानसिक शोषण करने की बात की गयी। बताया गया की बुजुर्ग दंपति अपने बहू की शिकायत कॉलोनी में करते रहते हैं। दरअसल यह समस्या रिटायर्ड होने या उससे पहले ही शुरू हो जाती । यह समस्या प्रोजोनिक डिमेंशया का ही एक रूप है। जिसमें बुजुर्गों को भूलने की गंभीर समस्या होने लगती है। गौरतलब हैं कि इस समस्या से पीड़ित बहुत पुरानी बाते नही भूलता बल्कि उस दिन या सुबह की बाते भूल जाता है। जैसे खाना खाने के बा्द याद नहीं रखना की उन्होंने आहार लिया हैं की नही।इसी दरम्यान अगर कोई परिचित मिल जाये और पूछ ले की उन्होंने भोजन किया हैं या नही तो उनका जवाब ना में होगा।समस्या यहीं से शुरू हो जाती है। समाज में यह बात तुरंत फैलने लगती हैं कि अमुक ने अपने माता-पिता की अच्छी सेवा नही की।
बुजुर्गों को सम्मान की दरकार।

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हमारे समाज में हमारे बुजुर्गों के मानसिक स्वास्थ्य पर अभी खास काम नही हुए।ज्यादातर डिजेनरेटिव समस्याएं सुरसा की तरह मुंह बाये खङी होती है। सेवानिवृत्त होने के बाद अकेलापन बढने, समूह में काम करने की भावना कम होने से ये दिक्कते बढने लगती है। जिस प्रकार एक शिशु के जन्म के बाद कोशिकाएँ तेजी से बनती हैं उसी प्रकार वृद्धावस्था में घिस चुकी कोशिकाएं तेजी से दरकने लगती है। नतीजतन शारीरिक थकान, सांस फूलना, अपच, ज्यादा भूख या खाने से परहेज का होना देखा जाने लगता है। इसी प्रकार मनोवैज्ञानिक रूप से भी आत्मबल कमजोर होना, बार-बार उपलब्धि पर जोर देना, रोगभ्रम का होना, ध्यान विचलन और अनगिनत डर जेहन में आकर हौसले तोङने लगते हैं। ऐसी दशा में पारिवारिक और समाजिक उपेक्षा इनके मन में विष घोलने लगता है। जरूरत हैं की घर के बुजुर्गों को उनकी आवश्यकता के मुताबिक देखभाल हो । उनके कसावटपन को दूर करने के लिए युवाओं को प्यार का मरहम उन्हें लगाया जाये।टूट रहें हौसले में उङान भरवाने के लिए वाजिब सम्मान दिये जाये।इस उम्र में यह औषध की तरह उनके जख्मों को भरने का काम करता है। इस आलेख के लेखक
 डॉ॰ मनोज कुमार, बिहार के सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक हैं।
इनका संपर्क नं-9835498113 है। 

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