राजेश कुमार वर्मा
समस्तीपुर, बिहार ( मिथिला हिन्दी न्यूज ) । भारत सत्याग्रह आन्दोलन के संस्थापक अध्यक्ष सह अधिवक्ता सुमन कुमार शर्मा ने पत्रकारों को एक भेंटवार्ता में कहा की अखंड भारत की संप्रभुता गरिमा और संस्कृति आज पूरे विश्व पटल पर अन्य देशों में पूज्य, सराहनीय और विश्वास का पात्र बन चुकी है और भारत सहित हर छोटे बड़े देशों के राष्ट्राध्यक्ष सार्वजनिक रूप से एकता और अखंडता के धरातल पर आवाम के नाम शांति का संदेश दे जनमत क़ो एक करने में साथ खड़े होने को हैं पर विश्व शांति और एकता के बीच कुछ जंजीरों ने लोगों को उनके मनुष्य से बढकर कुछ और होने का बोध कराया।धर्म समुदाय संपन्नता और शक्ति दीमक की तरह इन जंजीरों की जकड़न बनी है जो किसी को उसके कौम से परिचय कराती है तो कहीं समुदाय विशेष वर्ग के आधार पर लोगों में बंटवारा पर मनुष्य की विलासिता है कि वह आज भी चंद मुठ्ठी भर धर्म के ठेकेदारो के आगे आपसी उन्माद फैलाने को आतुर हैं और ऐसे ही ठेकेदारों से फैलने वाली साम्प्रदायिक आग की लौ पर राजनीति अपने आप को तपाकर खरा सोना बनने की ओर है।भारत में विवेकानंद, गांधी, बुद्ध,चाणक्य और मदर टेरेसा की जीवनी भले ही आज भी प्रासंगिक हो पर वास्तविकता की परछाई निश्चय ही सत्ता के सिंहासन के नीचे अपना भविष्य संवारने में लगी है। मनुष्यता का राग अलापते कुछ रसूखदार लोगों को सांप्रदायिकता के नाम पर बांटकर चकाचौंध की गली में सोए हैं और लाशों से पटी खुनी खेल का अंजाम के नाम पर आगाज किया जा रहा है। देश में प्रति वर्ष लाखों लोग सांप्रदायिक आग में जलते हैं पर शांति के नाम संप्रदाय का यह अद्भुत नजारा आज हर गांव शहर गली मोहल्ले का शंखनाद बन चुका है। बिहार के जहानाबाद जिले में दुर्गा जी के मुर्ति विसर्जन में आज फिर से सांप्रदायिकता के फन पर सवार यह विनाशकारी संकट लोगों के निकट उनके मानव धर्म से अलग कुछ और मानने को विवश कर दिया है। विसर्जन की आर में मनुष्यता के वध को संकल्पित सांप्रदायिक ताकतों में इतनी हिम्मत जिस शक्ति के नीचे शरणागत है वह हमारे लालफीताशाही और राजनीतिक शक्ति के स्वार्थपन इतिहास का परिचायक है। जहानाबाद का खुनी खेल लोगों के खून से सना एक भ्रष्ट व्यवस्था को चरितार्थ करता है जिसे प्रशासनिक और राजनीतिक गलियारों में मामूली तनाव का रूप देकर अपनी खानापूर्ति की जा रही है पर बेबस हैं वो दरिंदे जो कर्म की परिपाटी पर अपने भारत का इतिहास बनने के बजाय कौम के नाम पर अपनी माँ की कोख को कलंकित करने में लगे हैं। लाचार हैं वह गरीबी जो मुट्ठी भर दाने और चंद रूपयों की खातिर अपनी इज्जत और सम्मान को समाप्त करती है पर हमारा समाज आज भी समानता के नाम पर सांप्रदायिकता के खेल को पहचान नहीं पा रहा है। शायद इसलिए क्योंकि जब संविधान के आंखों पर ही काली पट्टी बंधी है फिर कौम के कहर का कायराना वार लोगों को लोगों से बांटकर उन्माद का नजारा क्यों न दिखाएगा। मूर्ति विसर्जन में जब स्थानीय जिला प्रशासन पूजा समिति को निर्देशित कर चुकी थी और पुलिसिया व्यवस्था चौकस थी फिर आखिर क्यों और कैसे सौहार्द बिगाड़ने की कोशिशों के बीच सिस्टम नाकाम दिखती है और ये कोई कुदरती किस्मत या भाग्य का खेल नहीं है ये हमारे भ्रष्ट व्यवस्था की क्रुर पहचान है जो समानता और सौहार्द के नाम पर संप्रदाय का रंग उकेरने में महान है।
जहानाबाद की घटना कोई पहली घटना नहीं है और शायद आखिरी भी नहीं लेकिन हम इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकते हैं कि समानता के नाम पर संप्रदाय का खेल हमारे बीच और हमारे आसपास नहीं हो रहा है लेकिन हम अपने उस व्यवस्था के अधीन उम्मीद बांधे बैठे हैं जो खुद भावहीन हो सदभावना का राग अलाप रही है।
यह काली शक्ति हमें हमारी एकता शक्ति विश्वास और समानता के बोध को आत्मसात करने से खंडित होगा जिसके लिए हमारा प्रयास ही एकमात्र विकल्प है।