रोहित कुमार सोनू
मिथिलांचल अपनी लोक संस्कृति, पर्व-त्योहार व पुनीत परंपरा के लिए प्रसिद्घ रहा है। इसी कड़ी में भाई-बहन के असीम स्नेह का प्रतीक लोक आस्था का पर्व सामा-चकेवा है। मिथिला की प्रसिद्घ संस्कृति व कला का एक अंग है सामा-चकेवा उत्सव। आस्था का महापर्व छठ समाप्त होने के साथ ही भाई बहनों के अटूट स्नेह व प्रेम का प्रतीक सामा-चकेवा पर्व की शुरुआत हो चुकी है। ग्रामीण क्षेत्रों का चप्पा-चप्पा सामा-चकेवा की गीतों से अनुगूंजित है। मिथिलांचल में भाईयों के कल्याण के लिए बहना यह पर्व मनाती है। इस पर्व की चर्चा पुरानों में भी है। सामा-चकेवा पर्व की समाप्ति कार्तिक पूर्णिमा के दिन होगी। इस पर्व के दौरान बहनें सामा, चकेवा, चुगला, सतभईयां को चंगेरा में सजाकर पारंपरिक लोकगीतों के जरिये भाईयों के लिए मंगलकामना करती है। सामा-चकेवा का उत्सव पारंपरिक लोकगीतों से है। संध्याकाल गाम के अधिकारी तोहे बड़का भैया हो, छाऊर छाऊर छाऊर, चुगला कोठी छाऊर भैया कोठी चाऊर तथा साम चके साम चके अबिह हे, जोतला खेत मे बैसिह हे तथा भैया जीअ हो युग युग जीअ हो सरीखे गीत एवं जुमले के साथ जब चुगला दहन करती है तो वह दृश्य मिथिलांचल की मनमोहक पावन संस्कृति की याद ताजा कर देती है। कार्तिक शुक्ल पंचमी से प्रारंभ होकर पूर्णिमा तक यह पर्व मनाया जाता है। माहात्म्य से जुड़ी इस पर्व के सम्बन्ध में कई किंवदंतियां है। अलबत्ता जो भी हो मिथिलांचल में भी तेजी से बढ़ रही बाजारवादी व शहरीकरण के बावजूद यहां के लोग अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये हुए हैं।