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मानवता किनारे खड़ी अपनी पहचान के संकट को देखकर विचलित है





राजेश कुमार वर्मा

नई दिल्ली/पटना, ( मिथिला हिन्दी न्यूज कार्यालय ) ।
साथियों दुर्भाग्य से हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं, जिसका बाहरी आवरण अपार सुख समृद्धि से पटा पड़ा है लेकिन भीतरी भाग में, आंतरिक भाग में निर्धनता, भुखमरी और उससे भी खतरनाक कट्टरता जैसी त्रासदियां दिन व दिन बलबती होती जा रही हैं। यह घोर असंवेदनशीलता का वह दौर है जिसमें मानवता किनारे खड़ी अपनी पहचान के संकट को देखकर विचलित है। लोकतंत्र और मानवाधिकार की बात करने पर व्यक्तिगत अहंकार कुलांचे मारने लगता है। अहंकार से भरे इस घनीभूत समाज में समानता, समान अधिकार की सोचने वालों की कोई खैर नहीं है। इनके समानांतर प्रश्न भी अनेक जिज्ञासाओं से भरे पड़े हैं, जिनके समाधान के लिए नई सोच, नई चेतना और नई शक्ति की कल्पना की जाती है। लेकिन दुरावस्थाएँ इतनी हैं कि नई बात सामने आ ही नहीं पाती। इसमें व्यक्तिवाद की पीठ पर सवार उन्माद Hydra headed वाली शक्ल में दिखाई देने लगता है जिसकी काली छाया अक़्सर सभ्य नागरिकों को डराती रहती है। इस उन्मादी दौर के मौज़ू वातावरण में कविता के कुछ अंश...

शब्दों की तलवार पर
उन्मादों की धार।
गली-गली में घूम रहे हैं
कातिल पहरेदार।।
यह उन्मादी विरोधाभास कोई नया नहीं है। ऐसे उभार कई बार आये हैं और कोई अच्छी मिशाल भी नहीं छोड़ी है। लेकिन इनकी परिणिति मानवता की कितनी हानि कर चुकी होगी, यह अनुमान लगाना असंभव है। यह ऐसा दौर भी है जहां बुद्ध, अशोक और गांधी को भी खलनायक के रूप में देखा जाने लगा। सांस्कृतिक चेतना के ऐसे प्रकाश पुंज जहां खलनायक दिखने लगें, वहां नवोत्थानवादी विचारकों को किस हद तक कुचला जा सकता है, हमारी कल्पना के परे है। ऐसे विचारों ने नवोत्थान की सुनहरी कोंपलों को हमेशा रौंदने का काम किया है क्योंकि यह पुरातनता पर आरूढ़ होकर नए विचारों को शत्रु मानता है।
गांधी की 150 वी जयंती के वर्ष में हिंसा का इतना बुरा समय चल रहा है। आपको याद होगा कि गांधी इससे ज्यादा गंभीर समय में अहिंसा का दिया जलाते रहे, उसमें वे विजयी भी हुए, उन्होंने मानवता का पथ भी दुरुस्त किया और वे भारतीयता के वेगमयी सिपाही भी सिद्ध हुए।
जय जगत! जिन्दाबाद!! समस्त्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा सम्प्रेषित।

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