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भोजपुरी सिनेमा से लोगों का होता मोहभंग दर्शकों की घटती तादाद


अनुप नारायण सिंह

पटना, बिहार ( मिथिला हिन्दी न्यूज कार्यालय ) ।
भोजपुरी सिनेमा से लोगों का होता मोहभंग दर्शकों की घटती तादाद यूट्यूब पर लाखों सिनेमा हॉल में सैकड़ों की तादाद भी नहीं प्रयोगवाद के बावजूद भोजपुरी सिनेमा को क्यों नहीं मिल रहे हैं दर्शक कौन है भोजपुरी सिनेमा का तारणहार किसने बिगाड़ दिया है । जायका क्या चाहते हैं दर्शक क्यों नहीं निकल पा रहा सिनेमा का लागत बजट वितरक कैसे गर्क कर जाते हैं निर्माताओं के पैसे नए कलाकारों को क्यों दबा दिया जाता है लाबीबाजी से किसका नफा नुकसान एक ही हीरोइन एक ही हीरो के साथ बार-बार क्यों होती है रिपीट पर्दे के पीछे का सच शोषण की कहानी.आज का भोजपुरी सिनेमा सत्तर-अस्सी के दशक के विचार-शून्य सिनेमा की नकलभर है. इतना ही नहीं, वह उन फिल्मों की सीधे-सीधे नकल भी करता है. भोजपुरी की शुरुआती फिल्मों को पारिवारिक दर्शकों का भरोसा मिला था लेकिन आज वह अनुपस्थित है.पलायन, अकेलेपन और बिना किसी सांस्कृतिक चेतना के भटकती आबादी को फूहड़ फंतासी परोसकर पैसा कमाने की होड़ मची हुई है. फिल्मों और म्यूजिक एल्बमों में कोई फर्क नहीं रह गया है. बदलते दौर की भौतिक चमक-दमक को तो भोजपुरी सिनेमा खूब दिखाता है, पर सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की जड़ता से नहीं भिड़ता. वह एक बड़े विभ्रम का शिकार है.आज भी एक भोजपुरी फिल्म का औसत बजट 70 लाख से सवा करोड़ रुपये के बीच होता है. इसका आधा हिस्सा कथित पुरुष स्टार ले जाते हैं जिनका दावा है कि फिल्में उनके दम पर चलती हैं. इस वजह से तकनीक और अन्य प्रतिभाओं के लिए मौके कम हो जाते हैं.दर्शकों की रुचियां भी बदल रही हैं. वह एक जैसी फिल्मों से ऊब चुका है. ऐसे में आश्चर्य नहीं है कि महज पांच से दस फीसदी फिल्में ही ठीक से व्यवसाय कर पाती हैं.यदि भोजपुरी फिल्में नहीं बदलीं, तो स्मार्ट फोन और कंप्यूटर के बढ़ते प्रचलन के दौर में उसके आस्तित्व का बचा रहना संभव नहीं होगा. हिंदी और अन्य क्षेत्रीय फिल्मों के कारोबार का आधार आज मल्टीप्लेक्स हो चला है. भोजपुरी फिल्में अभी इस जगह तक नहीं पहुंच सकी हैं. समस्त्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा सम्प्रेषित ।

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