पटना, बिहार ( मिथिला हिन्दी न्यूज कार्यालय ) ।
मोह - भ्रम, ज्ञान के बाद यदि अज्ञान का जन्म होता है तो वह मोह - भ्रम, ज्ञान "जहर" है।किन्तु उससे ऊपर उठ कर ज्ञान के बाद यदि नम्रता का जन्म होता है।तो वही ज्ञान "अमृत" होता है।और वो अमृत देश - समाज के एकता - अखंडता को अमरत्व प्रदान करता है।रामचरितमानस के एक वाक़या उद्धृत करता हु ।राक्षसों के वध के लिए विष्णु जी राम अवतार में अयोध्या में जन्म लिए। विधि के विधान के तहत चौदह वर्ष का वनवास राम को होता है।सीता और लक्ष्मण भी वनवास में साथ होते है । उसी समय के कई ज्ञान - उपदेश - कल्याण आज उद्धरण बने हुवे है ।पंचवटी में लक्ष्मणजी प्रभु से पूछते हैं कि आप मुझे समझाकर यह बताएं कि ज्ञान, वैराग्य और माया का स्वरूप क्या है ? आपकी भक्ति क्या है ? तथा ईश्वर तथा जीव में क्या भेद है ? फिर वे अंत में इन प्रश्नों के पूछे जाने के पीछे अपना उद्देश्य बताते हुए कहते हैं कि प्रभु ! जिससे मेरे जीवन में जो शोक, मोह और भ्रम विद्यमान है वे दूर हों तथा आपके चरणों में अनुराग हो जाए । लक्ष्मणजी के द्वारा पूछे गए ये प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण हैं । परमार्थ तत्व के लिए जिज्ञासापूर्वक किए गए इन प्रश्नों तथा भगवान राम के द्वारा दिए गए उनके उत्तर को 'मानस' में *रामगीता* के नाम से जाना जाता है । इसमें लक्ष्मणजी अपने प्रश्नों के माध्यम से मनुष्य के साथ जुड़ी भी शाश्वत समस्याओं का समाधान प्रभु से पाना चाहते हैं । भ्रम में अर्जुन भी कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में भगवान कृष्ण के माध्यम से इसी प्रकार की समस्याओं का समाधान प्राप्त करते हैं और वह उपदेश *भागवत गीता* के रूप में प्रसिद्ध है।पंचवटी में लक्ष्मणजी के प्रश्नों को सुनकर भगवान राम उनसे कहते हैं - लक्ष्मण ! तुमने प्रश्न तो बहुत से कर दिए पर मैं इनका उत्तर बहुत विस्तार से न देकर संक्षेप में ही सब समझाऊँगा । और साथ-साथ प्रभु ने यह भी कह दिया कि मैं जो कुछ कह रहा हूं, उसे तुम मन, बुद्धि और चित्त लगाकर सुनो । लक्ष्मणजी के द्वारा कहे गए तीन शब्द शोक, मोह और भ्रम तथा प्रभु के द्वारा भी प्रयुक्त तीन शब्द मन, बुद्धि और चित्त ये आपस में पूरी तरह एक दूसरे से जुड़े हुए हैं । अंतःकरण चतुष्टय में मन ही शोक का केंद्र है । किसी घटना को देख या सुनकर मन में ही पीड़ा की अनुभूति होती है । परिवार, समाज तथा देश में घटने वाली हजारों घटनाएं हैं जिनसे व्यक्ति के मन में शोक उत्पन्न होता है । और जिस प्रकार शोक की समस्या मन से जुड़ी हुई है, भ्रम की समस्या का संबंध बुद्धि से जुड़ा हुआ है । भ्रम, व्यक्ति की बुद्धि में उत्पन्न होता है । मानस में इसका संकेत देवर्षि नारद के प्रसंग में वर्णन आता है कि देवर्षि नारद के अंतःकरण में यह अभिमान उत्पन्न हो गया कि मैंने सब विकारों को जीत लिया है । उस समय भगवान उनके इस गर्व को नष्ट करने के लिए अपनी माया को आदेश देते हैं । देवर्षि अपनी विजय-गाथा सुनाकर जब क्षिरसागर से लौटते हैं तब मार्ग में उन्हें एक नए नगर का दर्शन होता है । उस नगर के स्वामी, राजा शीलनिधि हैं तथा उनकी कन्या है जिसका नाम विश्वमोहिनी है । वस्तुतः वह एक वास्तविक नगर नहीं था, अपितु भगवान के संकल्प से निर्मित एक माया-नगर था । वह नगर पहले भी नहीं था और बाद में भी नहीं था । नारद वहां चले गए फिर उनके भीतर एक तीव्रतम का आकांक्षा का उदय हो गया । वे उस कन्या से विवाह करने के लिए व्यग्र हो उठे । यद्यपि देवर्षि नारद के जीवन में धर्म, कर्म, पूजा-पाठ आदि सब सम्यक रूप से विद्यमान हैं, पर उस समय उनकी जो मनःस्थिति हो गई वह तो मानो 'कामगीता' का ही उदाहरण है । उस समय उन्हें जप-तप आदि का विस्मरण हो गया । वे केवल इसी सोच में निमग्न हो गए कि कैसे शीध्र ही इस कन्या की प्राप्ति मुझे हो जाए ! यह हमारे मन की वृत्ति का ही एक चित्रण है । जब हमारे मन में कोई प्रलोभन उत्पन्न होता है, कोई आकांक्षा उत्पन्न होती है, कोई वासना उत्पन्न होती है तो उसकी पूर्ति के लिए मन में जो व्यग्रता जागृत होती है, उसका संकेत ही इस प्रसंग के माध्यम से मिलता है।आज देश में कुछ लोगों के मन में भ्रम उत्पन्न हो गया है।बुद्धि होते हुवे भी भ्रम में है।देश - समाज आशांत हो रहा है। ज्ञान होते हुवे भी धरना - प्रदर्शन हो रहा है । प्रेम भाईचारा कमज़ोर हो रहा है । देश की एकता - अखंडता पर प्रहार हो रहा है।आज देश - समाज में लोगों को भ्रम क्यों होते हैं ? तथा इनसे मुक्त होने की पद्धति क्या है ? इसके उत्तर में हम ऐसा मानते हैं कि ये तो रहेंगे ही और व्यक्ति को इस शब्दों से ऊपर उठ कर सबके साथ प्रेम - भाईचारे में रहना पड़ेगा, जीना पड़ेगा।सभी भारतीए माँ भारती के संतान है । माँ भारती सभी के लिए महत्वपूर्ण है ।आधुनिक चिकित्सा-पद्धति में डॉक्टर जिस प्रकार कई रोगों के विषय में यही धारणा रखते हैं कि वे ठीक नहीं हो सकते और व्यक्ति को उनके साथ ही रहना होगा , जीना होगा , ठीक उसी प्रकार इन समस्याओं को भी असाध्य और अपरिहार्य माना जाता है । पर अध्यात्म तत्व एवं मैं इसे स्वीकार नहीं करता । वस्तुतः मानव जीवन में ये जो समस्याएं दिखाई देती हैं उनका कारण स्वयं के भीतर है । और यदि हम उसे समझ लें तो बाहर दिखने वाली समस्याओं का समाधान अपने आप हो जाएगा।जिन्हें भ्रम में फ़िक़र है कल की वे जग रहे रात भर , जिन्हें यकीन है ईश्वर पर वे सोए रहे रात भर।एक अंत में संदेश :-
*मन - चित में भ्रम हो तो कोई अपना नही*
*समझो प्रेम - भाईचारा तो कोई पराया नही* अनूप नारायण सिंह की रिपोर्टिंग को समस्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा सम्प्रेषित ।