भोजपुरी को भले ही संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान नहीं मिला हो पर क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों में भोजपुरी का दबदबा सबसे ज्यादा
पटना, बिहार ( मिथिला हिन्दी न्यूज कार्यालय 21 फरवरी,20 ) । भोजपुरी को भले ही संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान नहीं मिला हो पर क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों में भोजपुरी का दबदबा सबसे ज्यादा है.भोजपुरी सिनेमा में काम करने वाले रवि किशन और मनोज तिवारी जैसे अभिनेता संसद में पहुंच चुके हैं कई सारे राजनीति में आने को लालायित है. गीत संगीत के माध्यम से भले ही अश्लीलता का ठप्पा लगता रहे फिर भी भोजपुरी का गीत संगीत का बाजार हिंदी के बाद सबसे बड़ा है आईए आपको बताते हैं कि वे कौन लोग हैं जो पनपती फलती फूलती भोजपुरी को बर्बाद करने मे लगे हुए पूरी पड़ताल इस रिपोर्ट में■
दरअसल यह भोजपुरी फ़िल्म उद्योग का विभत्स काल है । चहुं ओर अराजक स्थिति उतपन्न हो चुकी है । पुराने स्वयंभू सुपरस्टार और तथाकथित स्थापित कलाकारों की फिल्में पिछले तीन - चार वर्षों से पर्दे पर टिक नहीं पा रही है । सिनेमा हॉल बंद हो रहे हैं और दर्शक देवता उबकर दूर हो रहे हैं । इसका खुन्नस इन कलाकारों के चमचे - दलाल और भोजपुरी फ़िल्म उद्योग के माफिया गण नए कलाकारों - निर्माताओं और बैनरों पर षड्यंत्र कर निकाल रहे हैं और बाजबर्दस्ती नए - छोटे बैनरों की अच्छी फिल्में भी पर्दे से उतरवा दी जा रही है ।
पहले चूंकि पुराने निर्माताओं - बैनरों - अभिनेताओं की फिल्में हफ्ते - दो हफ्ते तक चल जाती थी इसलिए नए निर्माताओं - कलाकारों - बैनरों की फिल्में 3 दिन से हफ्ते भर बाजार में अपनी मौजूदगी का अहसास कराती रहती थी । किन्तु अब सब कुछ सिमट चुका है । भोजपुरी फ़िल्म उद्योग के तथाकथित - स्वयंभू सुपरस्टार जो लॉबिंग बाजी के सहारे फ़िल्म उद्योग में ठगवाजी का धंधा करने में कामयाब हो रहे थे वे अब तीन दिन में स्वयं पर्दे से उतर जा रहे हैं फलस्वरूप नवांकुरों को एक दिन या एक शो हासिल हो रहा है । अब सोचने वाली बात है कि एक दिन या एक शो के आधार पर कैसे किसी फिल्म के गुण - अवगुण की व्याख्या की जा सकती है या उसके संबंध में अच्छे - बुरे का अंदाजा लगाया जा सकता है या की उसके सफलता - असफलता की भविष्यवाणी की जा सकती है. ? लेकिन सब बूकरों - वितरकों और सिनेमाहाल के मालिकों की मिलीभगत है । नए निर्माताओं को सिनेमाहाल के मालिक - बुकर और वितरक के मिलीभगत से खेले जा रहे इस गंदे और कुत्सित खेल को समझना होगा । जब भी वितरक - बुकर सिनेमाहाल को नए निर्माताओं और नए स्टारकास्ट से सुसज्जित फ़िल्म भेजता है तो वह उसके साथ एक और फ़िल्म पुराने हीरो की घिसी - पिटी फिल्में भी इस हिदायत के साथ भेज देता है कि उसे चलाना तो पुरानी फिल्में ही है , नई फिल्म तो बस निर्माताओं - अभिनेताओं को दिखाने भर के लिए लगाकर उतार देना है यह बताने के लिए की आपकी फिल्मों में जान नहीं था - कि दर्शकों ने उसे नकार दिया - कि सिनेमाहाल का भट्टा बैठ रहा था तो सिनेमाहाल के मालिक ने उसे उतार दिया । आपकी फिल्मों के पीछे मेरे इतने पैसे खर्च हो गए , मैं घाटे में हूँ तो भला आपको पैसा कहां से दूं .? अरे, गजब कर रहे हैं, आप फ्लॉप फिल्मों की रिकवरी होती है क्या .? भाई साहब फ़िल्म उद्योग एक जुआ है जो किस्मत के धनी होते हैं वही पचास हजार से पचास लाख के मालिक बनते हैं . ? देखिए फिर कोशिश कीजिए किस्मत अच्छी होगी तो इस फ़िल्म के घाटे का भी मेकअप हो जाएगा । अरे भाई चिंता मत कीजिए, पैसे जहां गुम होते हैं वही पर खोजने से मिलेंगे । और फिर ये तो आपकी पहली फ़िल्म थी न इसे स्कूल फीस समझ लीजिए । ये सब कुछ चोंचलेबाजी हैं इस चोर बाजार के । दुर्भाग्य यह है कि इस गंदे खेल में हॉल मालिक से लेकर बुकर - डिस्ट्रीब्यूटर - दल्लों - कमीशनखोरों सबों की मिलीभगत रहती है और बलि भोजपुरी फ़िल्म उद्योग की चढ़ रही है ।
निश्चय ही यह सब एक निराशाजनक स्थिति है । और इसका कुफल यह है कि तथाकथित स्वयंभू भोजपुरी सुपर स्टारों को स्टेज - शो, लाइव शो, विज्ञापन और अन्य कर्म - कुकर्म से काम चलाना पर रहा है । किंतु भोजपुरी फ़िल्म उद्योग में अश्लीलता और द्विअर्थी संवाद - गीतों का घुरविरोधी एक खेमा इन्हें यहां भी चैन लेने नहीं दे रहा है । क्षणिक सफलता से बौराए कुछ बड़बोले स्वयंभू सुपरस्टारों को बार - बार निशाना बनाया जा रहा और येन - केन - प्रकारेण उन्हें तंग व तबाह करने की कोशिश की जा रही है यह । निश्चय ही यह सब अपने ही कुकर्मों का फल है । आखिर बोए पेड़ बबुल के तो आम कहां से होए .?
गम्भीरता पूर्वक विचार करें तो हम पाते हैं कि अपने उत्थान काल मे इन तथाकथित माफिया स्वयंभू सुपरस्टारों ने जमकर भोजपुरी स्मिता और भोजपुरी फ़िल्म उद्योग के साथ खिलवाड़ किया, उसे नोचा - खसोटा और जी भरकर लुटा । जो ऊर्जा और दिमाग भोजपुरी फ़िल्म उद्योग के विकास की और लगनी चाहिए थी उसे इनलोगों ने अपनी कुत्सित मानसिकता के कारण अपनी अय्यासी और नवाबी में लगा दिया । निर्माताओं के पैसों के बलपर एक लॉबी तैयार की गई । नई प्रतिभाओं का लिए रास्ता बन्दकर उन्हें पनपने से रोका गया और पूंजीपतियों को भ्रमित कर अपना बाजार बनाया गया ।
किन्तु महल चाहे रेत के हों या शीशे के स्थायी नहीं होते । स्थायी होने के लिए उसमें सीमेंट - बालू से लेकर ईंट - मिट्टी - गिट्टी की भी जरूरत पड़ती है । किंतु निज स्वार्थ और दम्भ में चूर इन तथाकथित स्वयंभू सुपरस्टारों और उनके दल्ले - माफियाओं ने अपने भ्रम जाल में इस अकाट्य सत्य को नजरअंदाज कर आंखों पर पट्टी बांध ली और दूसरों को भी स्वयं के चश्मे से दृश्य दिखाना शुरू कर उन्हें भ्रमित करते रहे । फलस्वरुप नतीजा सबके सामने है और आज भोजपुरी फ़िल्म उद्योग अपनी अस्तित्व और स्मिता के लिए सड़क पर संघर्ष कर रही है - अंतिम सांस ले रही है और कोई खेवनहार - कोई मसीहा नहीं दिख रहा है ।
दरअसल भोजपुरी फ़िल्म उद्योग अपने ही कुकर्मो का फल भोग रहा है । न जाने माफियाओं - लोबिंगबाजो - कमीशनखोरों - दलालों ने दल्ला गिरी कर कितने निर्माताओं का पैसा बुकर - वितरक द्वारा पचा लिया गया । कितने अभिनेताओं - अभिनेत्रियों ने निर्माताओं का पैसा एडवांस में लेकर ऐन शूटिंग से पहले आने से इनकार कर दिया । जो शूटिंग पर छोटे - मंझोले कलाकार आए भी उन्होंने भी इन नए निर्माताओं - बैनरों का सहयोग की वजाय शोषण ही किया । तयशुदा रकम से कई गुना अधिक रकमें नए निर्माताओं से सोने की अंडा देनेवाली मुर्गी समझकर बाजबर्दस्ती वसूला गया । स्थानीय स्तर पर भी जिन लोगों के सहयोग से निर्माता फिल्में बनाने का साहस करता है बाद के दिनों में वे भी कमीशनखोरी के फेर में निर्माताओं के साथ गद्दारी करता है और उसे धोखा देकर अपना उल्लू सीधा करने में लग जाता है । नए निर्माताओं के सेट पर आया निर्देशक चाहे वह नौसिखुआ ही क्यों न हो से लेकर सारे के सारे टेक्नीशियन यहां तक कि स्पॉट बॉय भी उसे जमकर लुटता है और अपनी जेबें भरता है । निर्माताओं के करोड़ो रुपये चले जाते हैं और रिकवरी लाखों में भी नहीं हो पाती है । फलस्वरूप लुटे - पीटे निर्माताओं कलाकारों की बद्दुआ से यह फ़िल्म उद्योग पूर्णतः अभिशप्त हो चुकी है और निकट भविष्य में इस हाय और अभिशाप से मुक्ति मिलता दिख नहीं रहा है । क्योंकि इतना होने के बाद भी उद्योग के तथाकथित माफियाओं - दलालों - कमीशनखोरों के रवैए में कोई बदलाव - कोई परिवर्तन आता नहीं दिख रहा है । जो भोजपुरी फ़िल्म उद्योग कभी एक पूर्णतः सुरक्षित उद्योग माना जाता था आज जुआघर और चकलाघर का रूप ले चुका है जहाँ जाकर लोग सिर्फ लूटते और लुटते हैं ।
इन सब कारणों से ही आज न जाने कितनी फिल्में बनने से पहले ही बंद हो जा रही है । अनेको फिल्मों की शूटिंग आधी अधूरी ही रह जाती है और डब्बाबंद हो जाती है । जो फिल्में इन आपाधापी से पार पाकर प्रदर्शन के लिए तैयार हो भी जाता है तो माफियाओं - दलालों का गिरोह सेंसर बोर्ड तक अपना जाल बिछाकर इन नए बैनरों - निर्माताओं - अभिनेताओं के टांग तोड़ने पर लग जाता है । जैसे - तैसे सेंसर से पार पाइए तो पटना के दलाल बुकर - डिस्ट्रीब्यूटर रहा सहा कसर भी पूरा कर देते हैं । जो लोग अग्रीमेंट होने से पूर्व दामाद की तरह स्वागत करते हैं , फ़िल्म प्रदर्शन के बाद ऐसे व्यवहार करते हैं मानो हमपर अहसान कर रहे हों । ऐसी बीभत्स स्तिथियों से गुजरने के बाद कौन निर्माता भला अपने हिम्मत को थामे रख पाएगा और पुनः फ़िल्म बनाने का दुःसाहस कर पाएगा. ?
फलस्वरूप भोजपुरी फ़िल्म उद्योग का पौधा पनपने से पहले ही सुख जाता है । अब जहां नवांकुरों के लिए कोई जमीन नही हो उस जमीन को भला बंजर होने से कौन रोक सकता है ?
संक्रमणकाल शुरू है, अंत का आगाज हो चुका है और सर्वनाश स्प्ष्ट दिख रहा है । ऐसे में भोजपुरी फ़िल्म उद्योग के पास केवल और केवल इन्तेजार के सिवाय कुछ बचा नहीं है । जरूरत है भोजपुरी फ़िल्म उद्योग में नव क्रांति - नव मसीहा की जो निःस्वार्थ तरीके से किसी अवतारी पुरुष के आने का इन्तेजार कर रहा है । अब देखना यह है कि इन्तेजार की यह घड़ी खत्म होती है या की भोजपुरी फ़िल्म उद्योग का अस्तित्व समाप्त होता है ....। अनूप नारायण सिंह की रिपोर्टिंग को समस्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा सम्प्रेषित ।