विक्रम सिंह ( सारण )
खिड़की से झांकती हूं बाहर मैं जब,
दूर तलक सन्नाटा सा पसरा है जमीं पर।
और आसमां में परिंदों के चुं चूं से उजागर,
देखो बरपाया है कैसा प्रकृति ने ये कहर।
कोई शोर नहीं बच्चों के खेलने का कहीं,
कोई गुबार नहीं बच्चों के लड़ने का कहीं।
किसी के चलने का आहट भी नहीं है यहां,
हर इंसान अब मकानों में कैद है यहां।
देखो बरपाया है कैसा प्रकृति ने कहर।
सब तरफ सिर्फ सन्नाटा सा छाया जमीं पर।
आज किस्मत ने पलट दी है बाजी यहां।
आसमां हैं भरे सड़कें वीरान देखा है।
आज देखो परिंदे खुले में उड़ते हैं कैसे यहां।
और इंसानों को पिंजरे में बंद देखा।
देखो बरपाया है कैसा प्रकृति ने कहर।
सब तरफ सिर्फ सन्नाटा सा छाया जमीं पर।
खिड़की से झांकती हूं बाहर मैं जब।
दूर तलक सन्नाटा सा पसरा है जमीं पर।
और आसमां में परिंदों के चूं चूं से उजागर।
देखो बरपाया है कैसा प्रकृति ने कहर...?
Produce by Rajiv Ranjan kumar , Published Rajesh kumar verma From Samastipur Bihar