संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम 1992 में पारित हुआ लेकिन शासन की यह प्रणाली भारत में यह प्राचीन काल से है। बावजूद राजनीतिक इच्छाशक्ति व उदारता की कमी की वजह से आज भी सक्षम स्वशासन का पंचायत बनाने का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ है।
27 साल पूरे होने के बाद भी भारत में स्थानीय सरकार पूरी तरह से सशक्त नहीं हुई है। ना ही उन्हें कार्मिक,वित्तीय, शासकीय व कार्यक्षेत्र की स्वायत्तता मिली है।
पंचायती राज शासन व्यवस्था लोकतांत्रिक है जिसे स्थानीय राजनीतिक बर्चस्व प्रभावित करता है। राजनीतिक मानसिकता का विकास होते ही कई बार सतही लोग भी मूल उद्देश्यों से भटक जाते हैं और राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाते हैं।
पटना, बिहार ( मिथिला हिन्दी न्यूज कार्यालय 24 अप्रैल,20 ) । विकास के लिए विकेंद्रीकरण सबसे सफल व्यवस्था मानी जाती है, इसे ही मद्देनजर रखते हुए अप्रैल, 1993 में पंचायती राज अधिनयम लागू हुआ। 27 साल पूरे होने के बाद भी भारत में स्थानीय सरकार पूरी तरह से सशक्त नहीं हुई है। ना ही उन्हें कार्मिक,वित्तीय, शासकीय व कार्यक्षेत्र की स्वायत्तता मिली है।
गांधी के सपनों के भारत में ग्राम्य स्वराज की अवधारणा केवल पंचायत चुनाव, ग्रामीण सड़क निर्माण अथवा राज्य व केंद्रीय सरकार की योजनाओं को लागू करवाने या मोनिटरिंग तक सीमित नहीं था। इन कार्यों के साथ-साथ लघु व कुटीर उद्योग, कृषि कार्य में ग्राम्य स्वराज की भूमिका रेखांकित की गई थी। वित्तीय स्वयत्तता ना मिलने के कारण यह असंभव है।
कोरोना महामारी के दौरान शासन के विकेंद्रीकरण का बेहतरीन मॉडल ओडिशा में देखने को मिला। जहां पंचायत की भूमिका पहचानते हुए मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने सरपंचों को स्थानीय स्तर पर कलेक्टर का अधिकार दिया है। इस संकट काल में ओडिशा के इस प्रयोग पर अन्य राज्यों को भी विचार करना चाहिए। इसके साथ एक समस्या भी है कि राज्य की सरकारें पंचायत को अधिकार तो दें लेकिन उनका दुरुपयोग ना हो ,इसके लिए मोनिटरिंग भी आवश्यक है।
पंचायती राज शासन व्यवस्था लोकतांत्रिक है जिसे स्थानीय राजनीतिक बर्चस्व प्रभावित करता है। राजनीतिक मानसिकता का विकास होते ही कई बार सतही लोग भी मूल उद्देश्यों से भटक जाते हैं और राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाते हैं। हालांकि इन अकर्मण्यता की बड़ी वजह अफसर व कर्मियों का भ्रष्ट लत भी है जिसकी वजह से अच्छे और ईमानदार पंचायत प्रतिनिधियों के इच्छाशक्ति पर भी ब्रेक लगा रहता है। हालांकि इसके बावजूद अच्छे प्रतिनिधि व अफसर भी हैं जिन्होंने अपने लगनशीलता से मॉडल पंचायत तैयार किया है।
बिहार में 2016 में हुए पंचायत चुनाव को कवर करने के दौरान कई उम्मीदवारों से मुलाकात हुई उन्होंने ऑफ रिकॉर्ड इस बताया कि चुनाव में लाखों का खर्चा है, अब बिना खर्च के वार्ड सदस्य, पंच , सरपंच व मुखिया बनना असंभव है। स्वाभाविक है कोई व्यक्ति जब कहीं धन निवेश करता है तो उसे रिटर्न की चिंता होती ही है। पंचायत चुनाव का जिम्मा राज्य निर्वाचन आयोग के जिम्में हैं, उन्हें इसपर चुनाव के दौरान कड़ाई से नजर रखनी चाहिए।
2.5 लाख पंचायतों में एक -तिहाई सीट महिला के लिए आरक्षित की गई जबकि कई राज्यों ने इसे बढाकर 50 फीसद तक कर दिया है। भारत सरकार के पंचायती राज विभाग के 2018 के आंकड़ें पर गौर करें तो पंचायत में करीब 46.5 फीसद महिला प्रतिनिधि है लेकिन ज्यादातर महिला प्रतिनिधि रबड़ स्टाम्प बनी हुई है जबकि उनके परिवार के पुरूष सदस्य मुखिया पति, सरपंच पति, मुखिया पुत्र आदि उपमाओं के साथ पद संचालक होते हैं।
संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम 1992 में पारित हुआ लेकिन शासन की यह प्रणाली भारत में यह प्राचीन काल से है। बावजूद राजनीतिक इच्छाशक्ति व उदारता की कमी की वजह से आज भी सक्षम स्वशासन का पंचायत बनाने का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ है। समस्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा अजय कुमार ट्विटर:- @Ajayjourno18 स्वतंत्र पत्रकार की रिपोर्ट सम्प्रेषित । Published by Rajesh kumar verma