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राजा भर्तृहरि राजा बना बैरागीप्रेम के बदले हर किसी को प्रेम ही नहीं मिलता़ कई बार इस राह में प्रेमी धोखा भी खा जाते हैं.


कुछ ऐसी ही कहानी है शृंगार शतक और नीति शतक जैसे महाकाव्यों की रचना करनेवाले राजा भर्तृहरि की, जिन्होंने अपनी सबसे प्रिय रानी के विश्वासघात के बाद सारा राजपाट छोड़ कर वैराग्य धारण कर लिया

अनूप नारायण सिंह 

पटना, बिहार ( मिथिला हिन्दी न्यूज कार्यालय 14 अप्रैल,20 ) । प्रेम के बदले हर किसी को प्रेम ही नहीं मिलता़ कई बार इस राह में प्रेमी धोखा भी खा जाते हैं. कुछ ऐसी ही कहानी है शृंगार शतक और नीति शतक जैसे महाकाव्यों की रचना करनेवाले राजा भर्तृहरि की, जिन्होंने अपनी सबसे प्रिय रानी के विश्वासघात के बाद सारा राजपाट छोड़ कर वैराग्य धारण कर लिया और वैराग्य शतक की रचना कर डाली़उज्जैन के राजा महाराज गंधर्वसेन बहुत योग्य शासक थे़ उनके दो विवाह हुए़ पहले विवाह से महाराज भर्तृहरि और दूसरे से महाराज विक्रमादित्य हुए थे़ पिता की मृत्यु के बाद भर्तृहरि ने राजकार्य संभाला़ वह असाधारण कवि और राजनीतिज्ञ थे़ इसके साथ ही संस्कृत के प्रकांड पंडित थे़ ।
उन्होंने अपने पांडित्य, नीतिज्ञता और काव्य ज्ञान का सदुपयोग शृंगार व नीतिपूर्ण रचना से साहित्य संवर्धन में किया़ राजा भर्तृहरि की दो रानियां थीं. बाद में उन्होंने पिंगला से शादी की़ पिंगला बड़ी रूपवान थी, इसलिए राजा उस पर काफी मोहित थे और उस पर अांखें मूंद कर विश्वास करते थे़ राजा पत्नी मोह में अपने कर्तव्यों को भी भूल गये थे़ उस समय उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का राजा के दरबार में आगमन हुआ़ ।
भर्तृहरि ने गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया़ इससे उन्होंने प्रसन्न होकर राजा को एक अमरफल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव निरोग और जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आयेगा और सदैव सुंदरता बनी रहेगी़ उनके जाने के बाद राजा ने अमरफल को एक टक देखा, उन्हें अपनी पत्नी से खास प्रेम था, इसलिए उन्होंने विचार किया कि यह फल मैं अपनी पत्नी को खिला दूं, तो वह हमेशा सुंदर और जवान रहेगी़ यह सोच कर राजा ने वह अमरफल रानी को दे दिया और उसे फल की विशेषता भी बता दी़ लेकिन उस रानी का लगाव नगर के कोतवाल से था, इसलिए उसने यह अमरफल कोतवाल को दे दिया और इस फल की विशेषता से अवगत कराते हुए कहा कि तुम इसे खा लेना, ताकि तुम्हारा यौवन और जोश मेरे काम आता रहे़
इस अद्भुत अमरफल को लेकर कोतवाल जब महल से बाहर निकला, तो सोचने लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठे प्रेम का नाटक करना पड़ता है, इसलिए यह फल खाकर मैं भी क्या करूंगा़
कोतवाल ने सोचा कि इसे मैं अपनी प्यारी राज नर्तकी को दे देता हूं, वह कभी मेरी कोई बात नहीं टालती और मुझ पर जान झिड़कती है़ अगर वह युवा रहेगी, तो दूसरों को भी सुख दे पायेगी और मुझे भी़ उसने वह अमरफल उस नर्तकी को दे दिया़ राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और अमरफल अपने पास रख लिया़ कोतवाल के जाने के बाद उसने सोचा कि कौन मूर्ख यह पापी जीवन लंबा जीना चाहेगा! मैं अब जैसी हूं, वैसी ही ठीक हूं. लेकिन हमारे राज्य का राजा बहुत अच्छा है, धर्मात्मा है, देश की प्रजा के हित के लिए उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए़ ।
यह सोच कर उसने किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत में उस अमरफल की विशेषता सुना कर उसे राजा को दे दिया और कहा, महाराज!
आप इसे खा लेना क्योंकि आपका जीवन हमारे लिए अनमोल है़ राजा फल को देखते ही पहचान गये और सन्न रह गये़ कड़ी पूछताछ करने पर जब पूरी बात उन्हें मालूम हुई, तो राजा को उसी क्षण अपने राजपाट सहित रानियों से विरक्ति हो गयी. संसार के माया-मोह को त्याग कर वह भर्तृहरि वैरागी हो गये और अपना राज-पाट छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंप कर गुरु गोरखनाथ की शरण में चले गये़ उसके बाद उन्होंने वहीं वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे, जो वैराग्य शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं.उससे पहले अपने शासनकाल में वे शृंगार शतक और नीति शतक नामक दो संस्कृत काव्य लिख चुके थे.
यही इस संसार की वास्तविकता है़ एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से प्रेम करता है और चाहता है कि वह व्यक्ति भी उसे उतना ही प्रेम करे़ लेकिन विडंबना यह है कि हरदम ऐसा हो नहीं पाता़ इसकी वजह यह है कि संसार और इसके सभी प्राणी अधूरे हैं. सब में कुछ न कुछ कमी है़। सिर्फ एक ईश्वर ही पूर्ण है. एक वही है जो हर जीव से उतना ही प्रेम करता है, जितना जीव उससे करता है़ इसलिए हमें प्रेम ईश्वर से ही करना चाहिए़ सही समय पर यही सोच राजा भर्तृहरि को गुरु गोरखनाथ के आश्रय में ले गयी और योगीराज भर्तृहरि का पवित्र नाम अमरफल खाये बिना अमर हो गया. उनका हृदय परिवर्तन इस बात का प्रतीक है. वह त्याग, वैराग्य और तप के प्रतिनिधि थे. हिमालय से कन्याकुमारी तक उनकी रचनाएं, जीवनगाथा भिन्न-भिन्न भाषाओं मे योगियों और वैरागियों द्वारा अनिश्चित काल से गायी जा रही हैं और भविष्य में भी बहुत दिनों तक यही क्रम चलता रहेगा.
और आखिर में.....
अपने जीवनकाल में राजा भर्तृहरि ने सांसारिक सुंदरता और मोह पर आधारित शृंगार शतक, राज-काज में नीति और आचरणों पर आधारित नीति शतक और विषय वासनाओं की कटु आलोचना करते हुए वैराग्य शतक की रचना की़ इन तीन काव्य शतकों के अलावा व्याकरण शास्त्र का परम प्रसिद्ध ग्रंथ वाक्यपदीय भी उनके महान पांडित्य का परिचायक है़ ।
उनकी रचनाएं आज भी उतनी ही लोकप्रिय और प्रासंगिक हैं. उन्हें शब्द विद्या के मौलिक आचार्य माना जाता है़ यही नहीं, राजा भर्तृहरि के जीवन पर सन 1922 में एक मूक फिल्म के अलावा हिंदी और गुजराती भाषाओं में भी फिल्में बन चुकी हैं । समस्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा अनूप नारायण सिंह की रिपोर्ट सम्प्रेषित । Published by Rajesh kumar verma

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