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कोरोना वायरस से फैले महामारी को लेकर लाखों लोगों का हुजुम देश के महानगरों से अपने अपने गाँव की ओर जाने को विवश हुए

भारत में नई व्यवस्था की सुगबुगाहट 

आज के कुछ आंकड़े : देश की कुल जनसंख्या--- 134करोड़ ,और 
          देश की कुल सम्पत्ति--- 8230 अरब डालर है। जिसमें 276 अरब डालर सिर्फ देश के 57 लोगों के पास है। 248अरब डालर देश के 84 लोगों के पास है। देश के सिर्फ01% लोग के पास देश की कुल सम्पत्ति का 77% सम्पत्ति है

 सन् 1947 मेंं देश विभाजन के वक्त मची अफरा तफरी को वयाँ करने वाली कुछ किताब के पन्नों को पढ़ रहा था कि कैसे चन्द लोगों के द्वारा तय किए गए देश विभाजन के निर्णय के चलते लाखों लोगों को अफरातफरी के दौर से गुजरना पड़ा था।  

उस हृदयविदारक घटना के बहत्तर वर्ष वाद पुनः उसी तरह के भागम भाग और अफरातफरी का दृश्य देखने को मिला

सुशील रंजन/प्रवीण प्रसाद सिंह की रिपोर्ट

  पटना/समस्तीपुर,बिहार ( मिथिला हिन्दी न्यूज कार्यालय 11 अप्रैल,20 ) । सन् 1947 मेंं देश विभाजन के वक्त मची अफरा तफरी को वयाँ करने वाली कुछ किताब के पन्नों को पढ़ रहा था कि कैसे चन्द लोगों के द्वारा तय किए गए देश विभाजन के निर्णय के चलते लाखों लोगों को अफरातफरी के दौर से गुजरना पड़ा था। मुसीबतें झेलनी पड़ी थी।जल्लत की जिन्दगी जीनी पड़ी थी। दर दर की ठोकरें खाने को विवश होना पड़ा था। उस हृदयविदारक घटना के बहत्तर वर्ष वाद पुनः उसी तरह के भागम भाग और अफरातफरी का दृश्य देखने को मिला । जब कोरोना वायरस से फैले महामारी को लेकर लाखों लोगों का हुजुम देश के महानगरों से अपने अपने गाँव की ओर जाने को विवश हुए। माथे पर सामानो का गट्ठर, गोद में बच्चे, हाँथ मेंं खाली पानी का वोतल लिए पचास और सौ नहीं, हजार हजार किलोमीटर पैदल ही, भूखे-प्यासे चलने को लोग विवश हुए।पास मेंं पैसे नहीं । खाने को सामान नहीं।सामने अनिश्चित भबिष्य । यह जानते हुए कि जिस गाँव में पुनः वापस लौट रहे हैं वहाँ जीवन यापन की कोई व्यवस्था नहीं है।लेकिन अपने जन्म स्थल की मिट्टी की खुशबू , अपनी भाषा-संस्कृति के प्रति लगाव , अपने परिवार-रिश्तेदार के प्रति अनोखे अपनापन का अहसास से उत्पन्न मनोवल और धैर्य इन सबों को मुसीबत की घड़ी में अपने अपने गाँव में अपनों के बीच जाने को विवश कर रहा था।
         यह घटना इस बात का दर्शाने के लिए काफी है कि आजादी के इतने दिनों बाद भी हम हम सब पूर्ण रूप से तो छोड़िये आंशिक रूप से भी जहाँ रहते हैं वहांँ व्यवस्थित नहीं हो पाए हैं । जीवन वसर के लिए रोजगार की गारंटी नहीं कर पाये हैं । अनिश्चित भबिष्य के माहौल में देश के अधिकांश नागरिक असंगठित श्रमिक के रूप में अपने घर परिवार से दूर जहाँ तहाँ अनिश्चितता के माहौल में किसी तरह अपना जीवन गुजार रहे हैं ।सरकार के पास इन सब का कोई लेखा जोखा नहीं है। अगर कोई लेखा जोखा है भी तो सिर्फ राजनेताओं को कुर्सी पर बिठाने हेतु वोट देने के लिए वोटर कार्ड । आज हम सब को यह सोचने के लिए विवश होना पड़ रहा है कि तथाकथित आजादी के इतने दिनों के बाद भी ऐसे मोड़ पर हम सब क्यों खड़े हैं जहाँ जीवन यापन हेतु रोजगार की कोई गारंटी नहीं है ? अपने मिट्टी( जन्म स्थान) ,अपने घर आंगन की खुशबू के परिवेश के इर्दगिर्द जीवन यापन की कोई व्यवस्था नहीं है ?
            देश के प्रकृति प्रदत्त व्यवस्था पर जब हम गौर करते हैं तो पाते हैं कि यहाँ के प्रत्येक धूल कण मेंं असीम संभावनाएं और संसाधन छिपा पड़ा है । ,और जहाँ तक रुपये की बात की जाय तो देश में रूपये की कोई कमी नहीं है ,लेकिन व्यवस्था इस तरह की बनी हुई है कि इसका लाभ कुछ मुट्ठी भर लोग उठा रहे हैं । अगर इसे व्यवस्थित कर दिया जाय अर्थ व्यवस्था की कार्य योजना के वर्तमान स्वरूप को बदल दिया जाय तो सबको भरपूर जीवन यापन के अवसर प्रदान किए जा सकते हैं। जो अंग्रेजों के आगमन के पूर्व भारत में था। आज के कुछ आँकड़े पर गौर किया जाय---- 
        देश की कुल जनसंख्या--- 134करोड़ ,और 
          देश की कुल सम्पत्ति--- 8230 अरब डालर है। जिसमें 276 अरब डालर सिर्फ देश के 57 लोगों के पास है। 248अरब डालर देश के 84 लोगों के पास है। देश के सिर्फ01% लोग के पास देश की कुल सम्पत्ति का 77% सम्पत्ति है । ये आँकड़े इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि देश में रूपये की कमी नहीं है ,लेकिन आर्थिक ढांचा ऐसा है जिससे आर्थिक विषमता भीषण रूप लेती जा रही है। मुट्ठी भर लोगो के पास अकूत दौलत का भण्डार है तो बहुसंख्यक आबादी दो जुन के भोजन के लिए परेशान है । आजाद देश में यह कैसी व्यवस्था ? जिसमें सिर्फ1% लोग को जीवन जीने की व्यवस्था हो और 99% आबादी का श्रम 1% को मालामाल करने में खर्च हो ?
                अंग्रेजों ने भारत के आर्थिक और शैक्षणिक व्यवस्था को अपने स्बार्थ पूर्ति के लिए बर्बाद किया । यहाँ के ग्राम आधारित जन जन के सहयोग से संचालित होने वाली कृषि एवं शिल्प उधोग एवं आध्यात्म आधारित और जीवन के यथार्थ से जुड़ी शिक्षा पद्धति को बर्बाद किया । दुख की बात है कि आजाद देश में भी देश के व्यवस्था पर काबिज लोग अंग्रेज की बनाई व्यवस्था को अभी तक ढो रहे हैं । इसी का परिणाम है कि रोजी रोजगार के लिए अधिसंख्यक देश वासी अपना घर, परिवार छोड़ जहाँ तहाँ भटकने को विवश हैं।
              इसलिए आज देश के वुद्धिजीवीओं, समाज सुधारकों को इन सब मुद्दों पर गम्भीरता से बिचार करने का समय आ गया है। यह भी समझने का समय आ गया है कि जिस विदेशी ईकोनोमिक माँडल को लेकर हम चल रहे हैं क्या यह भारत की मिट्टी, भारत की परंपरा और भारत की संस्कृति से मेल खाता है ?आज यह भी देखने की जरुरत है कि भारत की जमीन क्या कहती है ? हम सब को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सम्पन्न रहा है ,सोने की चिड़ियाँ और विश्व गुरु बना है अपने तौर तरीके और संसाधन पर। भारत दुनियाँ को दिशा दिखाया है, दशा बदला है । आज भी भारत मेंं वह सब कुछ कर गुजरने की ताकत है ।वशर्ते कि इस तरह की कार्य योजना तैयार की जाय।
                  युग पुरूष और महान दार्शनिक श्री प्रभात रंजन सरकार का समाजिक-अर्थ नैतिक दर्शन प्रउत(प्रगतिशील उपयोग तत्व) के अनुसार जमीन, जल, जंगल, प्राकृतिक संसाधन पर उस स्थान विशेष के लोगों का अधिकार होना चाहिये तथा इसका उपयोग सहभागिता के आधार पर स्थानीय लोगों के द्वारा होना चाहिये ,तथा विवेक पूर्ण वितरण की व्यवस्था होनी चाहिये । ऐसा होने से अर्थ सम्पदा का बिकेन्दद्रीकरण होगा तथा आर्थिक सम्पन्नता सबको नसीब हो सकेगा। साथ- साथ उस क्षेत्र विशेष की मातृभाषा और लोक संस्कृति को वहाँ के जन जीवन में उतारना होगा जिससे कि वहाँ की संस्कृति मुखरित हो सके , सबमें आत्म गौरब का भाव पैदा हो सके। ऐसा होने से उच्च मानवीय भाव सबमें जागृत होगा।क्योंकि भारत के प्रत्येक क्षेत्र की संस्कृति में आध्यात्मिक भाव छिपा हुआ है जो पूरे दुनियाँ को परिवार के रूप में देखने का बिचार और संस्कार पैदा करता है।
          इसी सोच पर प्रउत दर्शन को मानने वालों ने भारत को यहाँ के अलग अलग विशिष्ट पहचान (जन गोष्ठी) जैसे-- भाषा, लोक संस्कृति, भौगोलिक स्थिति, नश्ल, भावात्मक विरासत इत्यादि के आधार पर चौवालीस सामाजिक आर्थिक ईकाई मेंं वर्गीकृत किया है । तथा उस जन गोष्ठी विशेष के भावात्मक विरासत के आधार पर अलग अलग नाम दिया है। जैसे --- मगध के भू भाग को प्रगतिशील मगही समाज। मिथिला को प्रगतिशील मिथिला समाज , छत्तीसगढ़ को छत्तीसगढी समाज, इत्यादि। इन सभी चौवालीसो समाजो को एक साथ जोड़ कर रखने के लिए "प्राउटिष्ट सर्व समाज" नाम का राष्ट्रीय मंच तैयार किया है । ये सभी समाज प्रउत दर्शन को मानते हैं और इन्हीं के समाज नीति, उधोग नीति ,कृषि नीति, शिक्षा नीति के आधार पर अपने अपने समाज को व्यवस्थित करने के लिए जागरूकता अभियान चला रहे हैं तथा साथ साथ संगठन का विस्तार भी कर रहे हैं। इसके आधार पर एक ऐसी व्यवस्था देने के लिए आन्दोलन कर रहे हैं जिससे समाज (गोष्ठी) विशेष के लोगों को अपने ही क्षैत्र मेंं, वहीं के कृषि, वन ,खनिज इत्यादि संसाधन पर उपक्रम खड़ा कर शत प्रतिशत रोजगार मुहैया किया जा सके ।साथ साथ अधिकांश उपक्रम को सहभागिता के आधार पर इस प्रकार संचालित किया जा सके जिससे इसमें होने वाले लाभ किसी एक व्यक्ति (मालिक) के हाँथ मेंं न जाकर इसमें कार्यरत सभी लोगों को मिले । यानी सबके सब हिस्सेदार बनें ।मालिक और मजदूर की संस्कृति समाप्त हो ।
                आज इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नई सोच पर आधारित व्यवस्था और नया नेतृत्व आज के युग की जरुरत है। आत्म केन्द्रित सोंच पर खड़ी व्यवस्था का जीर्ण शीर्ण कंकाल और भर्ष्ट राजनेताओं के द्वारा अपने स्बार्थ मेंं किए जा रहे पाप आज सर्बत्र अनेकानेक समस्याओं के रूप में भीषण बदवू फैला रहे हैं । इसे जितनी जल्दी बदल दें ,भारत और भारत वासी के वेहतर और सुखद भविष्य के लिए उतना ही अच्छा होगा । समस्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा सुशील रंजन/प्रवीण प्रसाद सिंह 'वत्स' की रिपोर्ट सम्प्रेषित । Published by Rajesh kumar verma

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