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बिहार के छपरा ज़िले के एक नामालूम से गांव का गुमनाम सा पेड़




दुनिया भर में आज के दिन धरती को बचाने का संकल्प लिया जाता है हमारे लिए धरती बचाने का संकल्प गांव के उन गुमनाम पेड़ों को बचाने का है जो स्मृति के बनने से लेकर आज तक दिलो-दिमाग में बैठे हुए है.

अनूप नारायण सिंह की रिपोर्ट 

पटना, बिहार ( मिथिला हिन्दी न्यूज कार्यालय 22 अप्रैल,20 ) । दुनिया भर में आज के दिन धरती को बचाने का संकल्प लिया जाता है हमारे लिए धरती बचाने का संकल्प गांव के उन गुमनाम पेड़ों को बचाने का है जो स्मृति के बनने से लेकर आज तक दिलो-दिमाग में बैठे हुए है. गांव के उन गुमनाम पीपल बरगद के पेड़ों के साथ हमारी जड़े भी जुड़ी हुई हैं अपनी विरासत से.कभी कभी उन पुराने पेड़ों से उनकी उम्र पुछने का मन होता है, जो पहली याद के बनने के पहले से वैसे ही और अभी तक वहीँ खडे हैं, उससे भी जहाँ बाबा सो गये हमेशा के लिये हिदायत देते हुए यहीं सुलाना मुझे, तब से ये पेड़ बाबा सा लगता है, छुटपन में कई बार लाल चीटियों जिन्हें भोजपुरी में माटा कहते हैं के काट लेने के डर के बावजूद लिपट जाते थे इसके तने से जैसे शायद क़भी लिपटे होंगे बाबा से! सोते शरीर को उनकी जागी आत्माओं के साथ खुद में बसा लेने वाले इन पेङों के पास बहुत ठंडी बहुत सुक़ून वाली नींदें होती हैं, यहाँ सोते को हँसते, मुस्कुराते, बाहें फैलाये, दुलराते देखा, क़भी 'नींद से जागते' नहीं! शायद, रोज़ सोने वालों को हर रोज़ जागना होता है, 'जाग ' चुके मुस्कुराते, बाहें फैलाये, सुक़ून वाली नींदों में जागते रहते हैं, इन पेङों के साये में ढलकर बाबा बनकर, बाबा के बाबा .... बनकर ! बिहार के छपरा ज़िले के एक नामालूम से गांव का गुमनाम सा पेड़ । समस्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा अनूप नारायण सिंह की रिपोर्ट सम्प्रेषित । Published by Rajesh kumar verma

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