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कल का जेहन में जो सुनहरा सपना था, आज वह लगता है जो ना अपना था,

प्रमोद कुमार सिन्हा   ( बेगूसराय, बिहार) 

 कल का जेहन में जो सुनहरा सपना था, 
 आज वह लगता है जो ना अपना था ।
 कैसे मीठी मीठी यादों में खोए रहते थे, 
 तुम्हारी बाहों में बाहें डाल सोए रहते थे ।
 आज एकाकी जीवन पर भी पहरा है, 
 दिल पर लगी चोट का घाव बहुत ही गहरा है, 
 फिर वही दिन और वही रात भी सुहानी है, 
 पर तुम ना हो तो सब कुछ बेईमानी है ।
 सब कुछ तो है पास हमारे पर एक तू नहीं, 
 हर गली शहर में ढूंढता है पर मिलती तू नहीं ।
 लगता है वह जीवन ही एक सपना था, 
 ख्वाबों में जी रहे थे जो ना अपना था । 
 तुम्हारे दिए आज चारों फूल खिल रहे हैं, 
 चारों दिशाओं से सुगंध मुझे भी मिल रहे हैं, 
 देखो कैसे फूलों को मैंने जीवन में संजोया है, 
 फूलों को भी मैंने तेरे रंग में ही पिरोया है, 
 जो ख्वाब थे तेरे नगर मोहल्ले भी देख रहे हैं, 
 उसी में तुझे देख हम भी आंखें सेक रहे है ।
 अब मेरी करनी कोई भी शेष नहीं रही,
 आकांक्षा पूरी हुई कोई अबशेस नहीं रही ।
 लो अब तुम्हें सौंपता अमानत तेरी कदमों में,
 स्वीकार करो जो ख्वाब था तेरे सपनों में, 
 कोई आकांक्षा नहीं है अब कुछ करने की, 
 हंसते-हंसते चल दूँ सुमिरन कर भगवान कि चरणों की ।।

 ये कविता मेरी जीवन की सच्चाई और हकीकत जिसको मैंने अपनी भावना में व्यक्त किया है । प्रमोद कुमार सिन्हा, बेगूसराय
  समस्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा सम्प्रेषित । Published by Rajesh kumar verma

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