नई दिल्ली, भारत ( मिथिला हिन्दी न्यूज कार्यालय 26 अप्रैल,20 ) ।
भगवान् महावराह
जलौघमग्ना सचराचराधरा
विषाणकोट्याऽखिलविश्वमूर्त्तिना।
समुद्धृता येन वराहरूपिणा
स मे स्वयम्भुर्भगवान् प्रसीदतु।।
महाप्रलय के जल में डूबी हुई सचराचर पृथ्वी का अखिल जगत् के मूर्तिस्वरूप सिंगोंवाले जिस वराहरूप स्वयम्भु भगवान ने उद्धार किया वे मुझपर प्रसन्न हों !
तत:समुत्क्षिप्य धरां स्वदंष्ट्रया
महावराह: स्फुटपद्मलोचन:।
रसातलादुत्पलपत्रसन्निभ:
समुत्थितो नील इवाचलो महान्।।
विकसित कमल के समान नयनों वाले महावराह ने अपनी दाढ़ों से धरा को उछालकर उठा लिया और उत्पल पत्र के समान रसातल से महान् नीलाचल की तरह उठ खड़े हुए।
दंष्ट्राग्रविन्यस्तमशेषमेत-
द्भूमण्डलं नाथ विभाव्यते ते।
विगाहत: पद्मवनं विलग्नं
सरोजिनीपत्रमिवोढपंकम्।।
हे नाथ ! आपकी दाढ़ों के अग्रभाग पर रखा हुआ यह सम्पूर्ण भूमण्डल ऐसा प्रतीत होता है मानो पद्मवन को रौंदते हुए ( दाँतों में) पंक लगा हुआ कमलिनी का दल हो ! --- विष्णु पुराण
पृथ्वी के लिए हमारे संकल्प
आज पृथ्वी दिवस है, हमें यह याद दिलाने का अवसर है कि हम इस पृथ्वी के प्रति अपना पुत्रभाव पूरी तरह दिखाएं और इसकी धारण शक्ति, सौन्दर्य की गंभीरता को बनाए रखें। पृथ्वी को हमारी माता कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण के बाद, पौराणिक मिथक रूप में वराहावतार का अाख्यान जाहिर करता है कि जलमग्न पृथ्वी का ब्रह्मा ने अवतार लेकर उद्धार, उत्थान किया और मनुष्यों को सौंपा कि वे इसकी गरिमा, स्थिति, पवित्रता को बनाए रखे। सभी दोहन मित् मित् हो अर्थात संयम को समझा जाए और पृथ्वी के सौंदर्य को बनाए रखा जाए।
वेद में पृथ्वीसूक्त में जो अवधारणा आई है, वह बड़ी ही प्रासंगिक हैं, उसमें पृथ्वी के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्धारण हुआ है। यह भी कहा गया है कि यह भूमि सर्वेश्वर द्वारा हमें श्रेष्ठ, आर्योचित उद्देश्यों के लिए दी गई है-- अहं भूमिमददामार्यायाहं। (ऋग्वेद 4, 26, 2)
इस पर रहने वालों के लिए सर्वेश्वर ने सूर्य, चंद्रमा, गगन, जलादि सब समान बनाए हैं, इन संसाधनों का संतुलित उपयोग, उपभोग ही करना चाहिए अन्यथा यह रत्नगर्भा अपना स्वरूप खो बैठेगी और वह घातक होता है। पृथ्वी से बडी कोई हितकारी नहीं। महाभारत, विष्णुपुराण, वायुपुराण, समरांगण सूत्रधार आदि में पृथुराजा के द्वारा पृथ्वी के दोहन का जो आख्यान है, वह जाहिर करता है कि धरती ने बहुत दयालु होकर मानव को अपने संतान के रूप में सब कुछ देने का निश्चय किया... मगर मानव की लालसाएं धरती के लिए हमेशा घातक सिद्ध हुई, वह लालची ही होता गया।
ब्रह्मवैवर्त के प्रकृतिखंड में भी ऐसी धारणा आई है। सुबह उठते ही पृथ्वी को प्रणाम करने की परंपरा हमारी संस्कृति में शामिल रही है। मनुस्मृति, देवीभागवत, पद्मपुराण आदि में ऐसे कई विचार हैं जो पृथ्वी के प्रति हमारे व्यवहार को निर्धारित करते हैं। पृथ्वी के प्रति नमस्कार का मंत्र भी हमसे कुछ कर्तव्य मांगता है।
विष्णुपुराण में पृथ्वी गीता आई है जिसमें पृथ्वी ने स्वयं अपनेे विचार रखें हैं कि हर कोई ये समझता है कि ये भूमि मेरी है और मेरे बाद मेरी औलाद की रहेगी। न जाने कितने राजा आए, चले गए, न राम रहे न रावण... सब समझते हैं कि वे ही राजा हैं, मगर अपने पास खडी मौत को नहीं देखते... मनोजय के मुकाबले मुक्ति है ही क्या। (विष्णुपुराण 4, 24)
शिल्पग्रंथों में वराह मूर्तियों के साथ पृथ्वी को भी बनाने का निर्देश मिलता है जिसमें उसका रत्नगर्भा रूप प्रमुख है। पृथक से भूदेवी की मूर्ति के लक्षण भी मयमतम् आदि में मिलते हैं, उनके मूल में भाव ये है कि हम पृथ्वी को देवी की तरह स्वीकारें और उसके सौंदर्यमय स्वरूप को ऐसा बनाए रखें कि आने वाली पीढि़यां भी ये कहे कि हमारे बुजुर्गों ने हमें बेहतरीन धरती सौंपी हैं...।
यही पृथ्वी दिवस का संकल्प होना चाहिए।
पृथ्वी आठों प्रहर घूमती हैं
भूभ्रमण भूबल
शक संवत् 1051 (1129 ईस्वी) में चालुक्यराज सोमेश्वर ने जनहित में कहा :
पृथ्वी निरंतर भ्रमण करती हैं। दिवस के उदय होने से अस्त होने तक और अस्त से पुन: उदय होने तक। दिन-रात के चार-चार याम (प्रहर) यानी कि अाठों याम में आठों ही दिशाओं में।
यह बहुत रोचक पक्ष है कि इस अवधि में पृथ्वी का अपना बल (आकर्षण) यहां के निवासियों के कार्यों को प्रभावित करता है। जो व्यक्ति अपने पीछे या दायें भूबल को देखकर कार्य का आरंभ करता है, उसे इच्छित कार्य में निश्चित ही सफलता मिल सकती है :
उदयादस्त पर्यन्तं,
अस्तादप्युदयावधि।
चतुर्यामेषु मेदिन्या,
दिक्षु भ्रमणमष्टसु।।
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भूबलं पृष्ठत: कार्यं
दक्षिणे वा जिगीषुणा।
एवमन्यानि कार्याणि,
सिद्धि यान्ति विनिश्चयम्।।
वाड़ : आड़ : नाड़ : खाड़ और झाड़
☢️
ये वे शब्द हैं जो भूमि की सीमाओं के सूचक रहे हैं। किसी शब्द के अंत में भी इनका प्रयोग होता है और इनके संस्कृत शब्द भी काम में लाए जाते हैं। देश भर में इन लोक शब्दों का प्रचलन है। हां, कुछ भेद के साथ भी।
मनु, चाणक्य, याज्ञवल्क्य आदि ने पृथ्वी पर शासित क्षेत्रों की पहचान और उनके स्वरूप के जो लक्षण बताए हैं, वे लगभग इन शब्दों में आ जाते हैं। यदि इन लक्षणों को कोई नष्ट, भ्रष्ट करता है तो उसके लिए दंड का प्रावधान है। पृथ्वी दिवस पर इनका महत्व समझना चाहिए...।
संसार का प्रारंभिक नक्शा
आज संसार को एक नजर में देखने के लिए नक्शा (Map) हमारे पास मौजूद है। मगर, पृथ्वी को लेकर कई प्रकार की मान्यताएं रही हैं। प्रारंभिक पुराणों में चार महासागर की मान्यता रही जबकि गुप्तकाल के आसपास सप्तसिंधु पृथ्वी का स्मरण होना आरंभ होता है। इस समय के आसपास ही सप्तद्वीपा पृथ्वी की मान्यता भी पुख्ता हो चुकी थी क्योंकि दान संबंधी वर्णनों में विभिन्न दानों से सप्तद्वीपा पृथ्वी के दान के बराबर फल के मिलने की मान्यताओं को लिखा गया है।
दरअसल सात की अंक की मान्यता खास हो चुकी थी। सप्तर्षि की धारणा थी ही मगर सात द्वीपों वाली पृथ्वी की धारणा पूरी दुनियां में बहुत समय से थी, खासकर बेबिलोनियावासी ऐसा मानते थे। कोई छह सौ ईसा पूर्व ऐसा नक्शा उन लोगों ने कल्पित कर लिया था जो संसार के स्वरूप का सांकेतिक रूप से प्रतिनिधित्व करता था। ब्रिटिश म्यूजियम में सिपर, र्इराक से प्राप्त एक पट्टिका है जो प्राचीनतम नक्शे की प्रतीक मानी जाती है।
इस काल मे आसपास हमारे यहां 'कूर्मचक्र' के आधार पर पृथ्वी को देखने और समझने की चेष्टा हो रही थी। यह कूर्मचक्र सर्वप्रथम गर्गसंहिता में आया जो कि शुंगकाल की देन है, बाद में इसी मान्यता को नारदसंहिता, मार्कण्डेयपुराण और बृहत्संहिताकार वराहमिहिर ने भी स्वीकार किया। इस समय सात ग्रहों की स्थिति के आधार पर धरती की स्थिति को देखा जा रहा था। इन ग्रंथों में नक्षत्रों के आधार पर देशों की स्थिति को स्वीकारा गया है, हालांकि मार्कण्डेयपुराण ने राशियों के आधार पर भी यह विचार किया गया है जो स्पष्ट ही बाद का विवरण लगता है। महाभारत में पीपल के पत्तों की तरह का विचार आया है।
वायुपुराण में पृथ्वी के विवरण का वर्णन करने वाले ऋषियों के नाम बताए गए हैं, ये नाम टोलेमी के समय के आसपास का विवरण देते हैं मगर, ये कितना अच्छा है कि पृथ्वी के नक्शे बनाने का प्रयास बहुत पहले शुरू हो गया था, यानी नाविकों की पृथ्वी परिक्रमा और यात्राएं निरंतर थी किंतु हम सिर्फ कोलंबस को ही जानते हैं जबकि कितने कोलंबस पृथ्वी के देशों, जलराशि और अंतरिक्ष में स्थित ग्रहों, नक्षत्रों के आधार पर स्थिति का अध्ययन कर चुके थे।
कर्क रेखा : किसने देखा
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पृथ्वी पर रेखाओं की मान्यता कितनी पुरानी है? किसने इनको कल्पित किया? क्यों किया? इनके मायने क्या हैं? ऐसे अनेक सवाल हो सकते हैं? नहीं भी हो सकते हैं?
लेकिन, यह ज्ञान पूरी दुनिया के लिए समान रूप से मान्य रहा हैं। खासकर उन यात्रियों के लिए जो मार्ग के अभाव में भटक जाते थे।
अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी जी बताते हैं : ब्रह्मपुराण में कथित कर्कि : आपस्तम्ब व अक्षसूत्रा - पुत्र |
आपस्तम्ब अर्थात् जल का स्तम्भ अर्थात् सूर्यनारायण की दक्षिणायनारम्भ स्थिति , और अक्षसूत्रा अर्थात् वह अक्षांश जिस पर सूर्य दक्षिणायन हो जाते हैं।
भूतकाल की बात है यह जब पृथ्वी की अक्षनति २१° थी।
आपस्तम्बो महाप्राज्ञो मुनिरासीन्महायशाः।
तस्य भार्याऽक्षसूत्रेति पतिधर्मपरायणा।।
तस्य पुत्रो महाप्राज्ञः कर्किनामाऽथ तत्त्ववित्।
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू
स्कन्दपुराण रेवाखण्ड में ज्येष्ठ मास शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि को पञ्चवराह से सम्बद्ध कहा गया है, और यह बताया गया है कि वराह अवतार द्वारा इसी तिथि को पृथ्वी का उद्धार किया गया था।
ज्येष्ठस्यैकादशीतिथौ विष्णुना प्रभुविष्णुना ॥
वाराहं रूपमास्थाय उद्धृता धरणी विभो ।
ऐसा प्रतीत होता है कि यह तिथि दक्षिणायनारम्भ से सम्बन्धित हो जाती है, किन्तु इस तिथि से पृथ्वी के उद्धार का क्या सम्बन्ध है? अन्य पुराण में इस तिथि को जगन्नाथ पुरुषोत्तम के पूजन का उल्लेख है।
वराह एकदंष्ट्र से पृथ्वी का उद्धार करते हैं, यह एकदंष्ट्र अथवा एकशृङ्ग क्या हो सकता है? कदाचित यह पृथ्वी के अक्षनति का विषय है, और पृथ्वी के अधिकतम झुकाव 24.5° से 22.1° की ओर के परिवर्तन को इङ्गित करता है।
✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी
वराहावतार : सर्वलोक, ऐश्वर्ययुक्त प्रतिमा
आदि वराह और नर रूप में धरा उद्धारक विष्णु के
वराह रूप की प्रतिमाएं गुप्त और उत्तर गुप्तकाल में विशेषकर प्रतिष्ठा को प्राप्त हुई। इस परम्परा को उन सब राजवंशों ने भी महत्व दिया जो शासकोचित गरिमा को प्राप्त हुए। किसी क्षेत्र विशेष, किसी समुदाय, लोकगत परिपाटी के अभ्युदय, उत्थान और संरक्षण को भी धरा उद्धारक जैसा कर्म माना गया और शासकों सहित सामंतों और प्रधानों ने भी अपने उसी भाव को वराहावतार रूप में महत्व दिया।
राजस्थान और मालवा में सातवीं से ग्यारहवीं सदी तक यह मान्यता खूब रही और आदिवराह के मंदिर बनाए गए। ये मन्दिर किसी इलाके के सघन होने और आर्थिक महत्व के होने को भी बताते हैं।
वराहावतार की एक अनोखी प्रतिमा रोहिड़ा गांव में कल देखने को मिली। भाई पूनाराम मुझे समाज के लक्ष्मीनाथ मंदिर में ले गए शिलालेख पढ़ाने, लेकिन मेरे लिए वराह की यह प्रतिमा महत्वपूर्ण हो गई। वराह की जैसी प्रतिमाएं एरण, विदिशा, खजुराहो से लेकर आबू तक मिलती हैं, यह भी उसी की एक कड़ी है लेकिन इसकी कुछ विशेषताएं हैं :
* यह वराह अवतार की प्रतिमा काले पाषाण की हैं जो इसी इलाके का है। यह विष्णु के चारों आयुध लिए है : दाएं - चक्र व शंख और बाएं - गदा व पद्म। ये पदगत स्थिति में हैं।
* पृथ्वी बाएं खड़े रूप में हैं और नायिकोचित सिंगारित रूप में है। उसका केश विन्यास सुंदर है।
* वराह के आगे आयुध पुरुष और बीच में लोक नायक उत्कीर्ण हैं।
* थुथनों से लेकर पूंछ तक लोकों और ऐश्वर्य का उत्कीर्णन किया गया है। यह विष्णु के लोकधारण की धारणा का संकेतक हैं।
* मुख खुला हुआ है। नीचे संभवतः शेष का अंकन है जिसका कुछ भाग अब बचा है।
यह उसी अंकन का अनुकरण लगता है जिसका कुछ निर्देश विष्णुधर्मोत्तर में मिलता है : ऐश्वर्य योगोधृत सर्वलोक कार्यों अनिरुधो भगवान् वराह।
रोहिड़ा की यह प्रतिमा 10वीं सदी के बाद की नहीं हो सकती। यह मन्दिर भी बहुत पुराना है और जो अभिलेख वहां लग रहे हैं, वे 16 वीं सदी के बाद हैं और सभी जीर्णोद्धार या आज्ञाओं के सूचक हैं। यह प्रतिमा प्रमारों के अभ्युदय काल की होनी चाहिए।
जय जय।
✍🏻श्रीकृष्ण "जुगनू"
समस्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा नागेंद्र प्रसाद सिन्हा द्वारा सम्प्रेषित आलेख प्रकाशित । Published by Rajesh Kumar verma