नदियों को खास तौर पर गंगा को पवित्रता का प्रतीक मानते हुए उनकी पूजा की जाती है
विभिन्न व्रत त्योहारों पर गंगा में श्रद्धालु स्नान करते हैं और पुण्य प्राप्त करते हैं।
इसी गंगा की एक सहायक नदी है जिसके जल को छूने से भी डरते हैं लोग। ऐसी मान्यता चली आ रही है कि यह एक शापित नदी है जिसके जल को छूने मात्र से सभी पुण्य कर्मों का नाश हो जाता है।
आइए जानें उत्तर प्रदेश और बिहार में बहने वाली शापित नदी कर्मनाशा की वह कहानी जिसकी वजह से लोग इसके जल को छूने से भी डरते हैं।
कर्मनाशा नदी का उद्गम बिहार के कैमूर जिले से हुआ है ।
पटना,बिहार ( मिथिला हिन्दी न्यूज कार्यालय 04 मई,20 ) । नदियों को खास तौर पर गंगा को पवित्रता का प्रतीक मानते हुए उनकी पूजा की जाती है। विभिन्न व्रत त्योहारों पर गंगा में श्रद्धालु स्नान करते हैं और पुण्य प्राप्त करते हैं। लेकिन कमाल की बात यह है कि इसी गंगा की एक सहायक नदी है जिसके जल को छूने से भी डरते हैं लोग। ऐसी मान्यता चली आ रही है कि यह एक शापित नदी है जिसके जल को छूने मात्र से सभी पुण्य कर्मों का नाश हो जाता है। लोगों में ऐसी भी धारणा रही है कि जब भी इस नदी में बाढ़ आती है तो किसी की बलि लेकर ही जाती है। आइए जानें उत्तर प्रदेश और बिहार में बहने वाली शापित नदी कर्मनाशा की वह कहानी जिसकी वजह से लोग इसके जल को छूने से भी डरते हैं।कर्मनाशा नदी का उद्गम बिहार के कैमूर जिले से हुआ है। यह बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश के भी कुछ हिस्से में बहती है। यूपी में यह नदी 4 जिलों सोनभद्र, चंदौली, वाराणसी और गाजीपुर से होकर बहती है और बिहार में बक्सर के समीप गंगा नदी में जाकर मिल जाती है।इस नदी के बारे में ऐसा माना जाता है कि जो भी इस नदी के पानी को छू भर लेता है उसका बना बनाया काम भी बिगड़ जाता है। नदी के बारे दंत कथा प्रचलित है कि प्राचीन समय में लोग यहां पर सूखे मेवे खाकर रह जाते थे लेकिन इस नदी के पानी का इस्तेमाल भोजन बनाने के लिए नहीं करते थे। वजह यह थी कि लोग यह मान चुके थे कि इसके पानी को छूने मात्र से उनके सभी पुण्य कर्म नष्ट हो जाएंगे।
नदी के बारे में एक पौराणिक कथा प्रचलित है। राजा हरिश्चन्द्र के पिता थे राजा सत्यव्रत।पराक्रमी होने के साथ ही यह दुष्ट आचरण के थे। राजा सत्यव्रत अपने गुरु वशिष्ठ के पास गए और उनसे सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा प्रकट की। गुरु ने ऐसा करने मना कर दिया तो राजा विश्वामित्र के पास पहुंचे और उनसे सशरीर स्वर्ग भेजने का अनुरोध किया।वशिष्ठ से शत्रुता के कारण और तप के अहंकार में विश्वामित्र ने राजा सत्यव्रत को सशरीर स्वर्ग भेजना स्वीकार कर लिया।
विश्वामित्र के तप से राजा सत्यव्रत सशरीर स्वर्ग पहुंच गए जिन्हें देखकर इंद्र क्रोधित हो गए और उलटा सिर करके वापस धरती पर भेज दिया। लेकिन विश्वामित्र ने अपने तप से राजा को स्वर्ग और धरती के बीच रोक लिया। बीच में अटके राजा सत्यव्रत त्रिशंकु कहलाए।
देवताओं और विश्वामित्र के युद्ध में त्रिशंकु धरती और आसमान के बीच में लटके रहे थे। राजा का मुंह धरती की ओर था और उससे लगातार तेजी से लार टपक रही थी। उनकी लार से ही यह नदी प्रकट हुई। ऋषि वशिष्ठ ने राजा को चांडाल होने का शाप दे दिया था और उनकी लार से नदी बनी थी इसलिए इसे अपवित्र माना गया साथ ही यह भी धारणा कायम हो गई कि इस नदी के जल को छूने से समस्त पुण्य नष्ट हो जाएंगे।
इस नदी के बारे में यह भी कहा जाता है कि कोई हरा-भरा पेड़ भी इस नदी को छू ले तो वह भी सूख जाता है। वैसे एक मान्यता यह है कि जब इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ तो कर्मनाशा नदी के पास बौद्धों भिक्षुओं का निवास था। हिंदू धर्म को मानने वाले खुद को बौद्ध भिक्षुओं से दूर रखने के लिए कर्मनाशा नदी को अपवित्र कहने लगे। जिसके बाद इस तरह की मान्यता प्रचलित होती चली गई कि इस नदी के जल को छूने मात्र से मनुष्य के पुण्य नष्ट हो जाते हैं। पुण्य नष्ट हो जाने के भय से लोग नदी के आस-पास जाने से भी डरने लगे। समस्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा अनूप नारायण सिंह की रिपोर्ट सम्प्रेषित । Published by Rajesh kumar verma