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दरभंगा स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से ताल ठोक रहे समाजसेवी फिल्म निर्माता रजनीकांत पाठक की कलम से पढ़िए बिहार में वित्त रहित शिक्षा नीति का असली खेल


वित्तरहित जो वित्तपोषित की मृगतृष्णा में खो गया है......

अनूप नारायण सिंह 

मिथिला हिन्दी न्यूज :- आज हम बिहार के एक ऐसे गुमनाम वर्ग की बात कर रहे हैं, जिन्हें बीते 8 सालों में शिक्षा विभाग एवं बिहार सरकार की अदूरदर्शी नीतियों ने इस वैश्विक संकट में भुखमरी के कगार पर पहुंचा दिया है। 'गुमनाम' कहना इसलिए उचित है क्योंकि यह वर्ग योग्यता रखने के बावजूद भी कई सालों से संघर्षरत होकर आज संकट की घड़ी में भी सरकारी तंत्र द्वारा उपेक्षित ही है।

हम बात कर रहे हैं बिहार के 50 हज़ार वित्तरहित शिक्षकों व शिक्षा कर्मियों की, जिनका एक बड़ा तबका एक अभिशप्त शिक्षा नीति के कारण 38 वर्षों से अधिग्रहण की बाट जोह रहा है।वर्तमान की टीस को समझने के लिए पहले इनका इतिहास समझना जरूरी है:- 

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बिहार में कई स्थानीय संभ्रांत समाजसेवियों ने अपनी निजी संपति दान कर तथा समाज से प्राप्त सहयोग राशि निवेश कर स्कूल कॉलेज खोलकर व संचालित कर बिहार के शिक्षा व्यवस्था में योगदान दिया। इन संस्थानों को ही बिहार सरकार द्वारा वित्तरहित शिक्षण संस्थानों की संज्ञा दी गयी, जहां पठन पाठन, परीक्षा, शिक्षकों की नियुक्ति इत्यादि सरकार के निर्देशों और मापदंडों के अनुरूप ही होता है। समय समय पर तत्कालीन बिहार सरकारों द्वारा ऐसे वित्तरहित स्कूल कॉलेज को चरणबध्द रूप से अधिग्रहण किया जाने लगा, जो आज सरकारी स्कूल कॉलेज के नाम से जाने जाते हैं। इसी तरह बहुत सारे अधिगृहित किए गए जबकि सैकड़ों वित्त रहित संस्थान अधिग्रहण से वंचित हो गए और समान आहर्ता रखने के बाद भी कई वित्त रहित शिक्षक अवैतनिक कार्य करने के लिए विवश रह गए।
अब वर्तमान की बात करते हैं। अभी वित्त रहित श्रेणी के 715 माध्यमिक विद्यालय, 507 इंटर स्तरीय तथा 225 डिग्री कॉलेज हैं जहां कार्यरत शिक्षकों की संख्या लगभग 50 हज़ार है और इन संस्थानों में बिहार के लगभग 60 % विद्यार्थी शिक्षा लाभ ले रहे हैं।

कई वर्षों तक इस शिक्षा नीति का दंश झेलने के बाद NDA की सरकार में साल 2008 में इन शिक्षकों को आर्थिक सुविधा पहुंचाने हेतु अनुदान देने का प्रावधान किया गया। यानि वित्त रहित कॉलेज के शिक्षकों को, "विद्यार्थियों के उत्तीर्णता " के आधार पर तय दर से राशि दी जाएगी और यह राशि सीधे शिक्षकों को न देकर संबंधित शैक्षणिक संस्था के प्रबंधन को दी जानी थी। लेकिन यह घोषणा भी हाथी का दांत बन कर दिखावटी रह गया और विगत 2012 से ही इन्हें न तो कोई अनुदान मिला और न ही कोई अपेक्षा ही। (हालांकि कही-कही 2014 तक का भी मिलने की सूचना है)साथ ही एक सत्र में भेजी गई अनुदान की राशि भी भ्रष्टाचारी सिस्टम के कारण बंदर बांट बन गई, बची कूची राशि के हकदार ये शिक्षक हो सके। 

आज तक ये अवैतनिक शिक्षक शिक्षा देने के अलावे चुनाव कार्य, मूल्यांकन कार्य अथवा सरकार द्वारा निर्देशित अन्य कार्यों में भी अपना योगदान देते आ रहे हैं, लेकिन आज वैश्विक महामारी में भी इनकी सुधी लेने वाला कोई नहीं है। शिक्षक कोटे के MLC से लेकर शिक्षा विभाग के अधिकारी तक, राज्य के मुखिया से लेकर देश के प्रधानसेवक तक इन्होंने अपनी दुर्दशा जतायी, लेकिन हक की आवाज को बस आश्वासन तक सीमित कर दिया गया।

मौजूदा वक्त में ये अर्थाभाव से भुखमरी के कगार पर पहुंच गए हैं। जो शिक्षक ट्यूशन पढ़ा कर या पार्ट टाइम जॉब कर किसी तरह अपना गुजारा कर पाते थे, लॉकडाउन के कारण उनकी भी स्थिति काफी दयनीय हो गई है। सवाल उठना लाजमी है कि शिक्षण की समान योग्यता और समान आहर्ता रखने के बावजूद भी क्यों इनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है? कब तक ये लोग वित्त रहित शिक्षा नीति का दंश झेलने को विवश होते रहेंगे? विकास का दंभ भरने वाली ये सरकारें ये क्यूँ भूल जाती है कि जिस राज्य में शिक्षा देने वाले गुरुओं के जीवन का सम्मान न हो, वह राज्य अपने नौनिहालों को बेहतर शिक्षा प्रदान करने में सफल कैसे हो सकता है?

सरकार को तत्काल प्रभाव से इन वित्त रहित शिक्षकों की समस्याओं को ध्यान में रख कर राहत पैकेज उपलब्ध करवाना चाहिए।लंबित अनुदान पर ठोस निर्णय लेकर राशि सीधे इनके खाते तक पहुंचानी चाहिए। समाज का हर वर्ग इस वक्त सरकार से मदद की आशा करता है। इसलिए बिहार सरकार से विनती है कि इनके इस आशा को निराशा में न बदले। इनके हित में जल्द फैसला लें।

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