मिथिला हिन्दी न्यूज :-बिहार के गोपालगंज ज़िले के एक छोटे-से गांव से ताल्लुक रखनेवाले अभिनेता पंकज त्रिपाठी अब बॉलिवुड के अपने बन चुके हैं.एक ख़ास मुलाक़ात में इस बेहद सुलझे और सहज इंसान ने अपने बचपन के दिनों को दोबारा जिया, संघर्ष के लम्हों को याद किया, प्यार-परिवार के बारे में बताया और राजनीति जैसे मुद्दे पर अपनी राय ज़ाहिर की. प्रस्तुत है बरेली की बर्फ़ी के प्यारे-से पिता नरोत्तम मिश्रा, न्यूटन के सख़्त असिस्टेंट कमांडेंट आत्मा सिंह और लुका छुप्पी के मज़ेदार किरदार बाबुलाल से हुई लंबी बातचीत के संपादित अंश. आइए पढ़ते हैं ख़ुश रहने और बेहतर इंसान बनने का पंकज त्रिपाठी का फ़ॉर्मूला.
■हमें तो रात को तारे सुलाते थे और सुबह चिड़िया उठाती थीं
मैं गांव के एक साधारण मध्यमवर्गीय किसान परिवार का बच्चा हूं. हम चार भाई-बहन हैं. मैं सबसे छोटा हूं. मेरा बचपन बहुत अच्छा गुज़रा है. हम प्राकृतिक माहौल में पले-बढ़े हैं. रात के साथी जुगनू और सितारे होते, तो दिन में तितलियां, मुर्गियां, गाय और गौरैया. हमने इतनी चिड़िया देखी हैं, इतनों के नाम जानते थे, जिनके बारे में महानगर के लोग सोच भी नहीं सकते. पक्षियों की हमारे जीवन में बहुत बड़ी भूमिका रही है. हमारी तो गायों से भी बातचीत होती रहती थी. अभी भी गांव में हमारे पास गायें हैं. हम इस तरह प्रकृति से जुड़े होते थे कि एक जानवर से भी संवाद स्थापित कर लेते थे. बचपन के बारे में संक्षेप में कहूं तो रात को तारे सुलाते थे और सुबह चिड़िया उठाती थीं.
■आज जो भी हूं, पत्नी के चलते हूं
जब मैं गांव से आगे की पढ़ाई के लिए पटना आया तो थिएटर देखने लगा. मैं बड़ा सीरियस दर्शक था. एक साल तक देखने के बाद लगा कि थिएटर, ऐक्टिंग तो बड़ा ही पावरफ़ुल मीडियम है. यह ऐसा मीडियम है, जिसके माध्यम से आप अपनी बात रख सकते हैं. इस तरह मैं थिएटर करने लगा. यही वजह है कि अभी भी मैं साल में ऐसी दो-तीन फ़िल्में करता हूं, जिनमें कोई बात हो. फ़िल्म, मनोरंजन के साथ-साथ कोई बात कहना चाहती हो. इसीलिए मसान, निल बटे सन्नाटा और न्यूटन जैसी फ़िल्में मेरे खाते में हैं.
हिंदी थिएटर इसलिए करता था, क्योंकि थिएटर मुझे अच्छा लगता था, वहीं फ़िल्में पैसों के लिए यानी सर्वाइवल के लिए करता था. आख़िर मुझे भी परिवार चलाना था. ड्रामा स्कूल की ट्रेनिंग के बाद मैं पटना गया. वहां थिएटर करना शुरू किया, जो बहुत कठिन लगा, क्योंकि थिएटर में पैसे नहीं मिलते थे. लगा कि यहां तो सर्वाइवल ही मुश्क़िल हो जाएगा. तब तक मेरी शादी भी हो चुकी थी. फिर मैं सर्वाइवल के लिए बॉम्बे आ गया, ताकि फ़िल्मों में थोड़े पैसे भी मिल जाएं. हिंदी थिएटर में पैसे नहीं हैं, बिल्कुल नहीं हैं.
शुरुआती दौर में यदि मैं बंबई में टिका रह पाया तो इसमें मेरी पत्नी मृदुला तिवारी का सबसे बड़ा योगदान है. उन्हें मुझपर भरोसा था. और भरोसे पर ही तो आप किसी से प्यार करते हो. भरोसे के बदौलत सब हो गया. वे ही कमाती थीं. घर चलाती थीं. उन्होंने मुझे झेला नहीं, बल्कि पाला है, चलाया है. उन्हें मेरे क्राफ़्ट, मेरे प्रयास, मेरी मेहनत, ईमानदारी पर भरोसा था. इसीलिए तो उन्होंने मुझसे विवाह किया, वर्ना ऐसे लड़के से कौन विवाह करता है, जिसका पता ही नहीं क्या होगा? ड्रामा स्कूल से पास आउट करते ही मैंने शादी कर ली थी. हम दोनों ट्रेन के स्लीपर क्लास में बैठकर मुंबई आए थे.
वे एक स्कूल में पढ़ाती थीं. उनकी कमाई से हमारी बेसिक ज़रूरतें पूरी हो जाती थीं. बंबई में टिकाने और ऐक्टर बनाने में उनका बड़ा योगदान है. वैसे मेरे जीवन में महिलाओं का बड़ा योगदान रहा है. फ़िल्मों में मुझे पहला बड़ा रोल निर्देशक भावना तलवार ने अपनी फ़िल्म धर्म में दिया था. दूसरी महिला थीं अनुराधा कपूर, जो पटना में एक नाटक में देखने के बाद मुझे टोक्यो लेकर गई थीं. अनुराधा कपूर दिल्ली में एनएसडी की डायरेक्टर थीं. आज मैं जो हूं, वह बनाने में मृदुला तिवारी, भावना तलवार, अनुराधा कपूर और मेरी मां हेमवंती देवी का बड़ा योगदान है.
■गांव के लोग कहते थे फ़िल्मों में कपड़े-वपड़े बनाता होगा
बॉम्बे में मेरे स्ट्रगल के शुरुआती पंद्रह सालों तक लोगों को यक़ीन ही नहीं होता था कि यह फ़िल्मों में काम कर रहा है. लोग कहते थे वो वहां कुछ और करता होगा. फ़िल्म इंडस्ट्री में कपड़े-वपड़े बनाता होगा. जब हम दिखने लगे, तब लोगों को विश्वास हुआ कि ऐक्टिंग करता है यह. हां, अब लोगों का नज़रिया बदल गया है. जाने पर घर पर थोड़ी-सी भीड़ हो जाती है. बाक़ी मेरी ओर से कोई बदलाव नहीं आया है. बहुत सारे लोग ढेर सारे सवाल लेकर आ जाते हैं, जैसे-फ़िल्में बनती कैसे हैं? सीन कैसे करते हैं? अभिनय के बारे में सवाल पूछते हैं, गॉसिप के बारे में पूछते हैं. अभी भी वहां माइंडसेट यही है कि हीरोइनें और सितारे इंसान हैं या नहीं, पता नहीं! मैं उन्हें बताता हूं कि वो भी हमारे आपके जैसे सामान्य इंसान हैं. एसिडिटी सबको होती है. चाहे हीरोइन हो, हीरो हो या चाहे मोदी जी हों. हम सब इंसान ही हैं.
नैशनल अवॉर्ड मिला तो कुछ मीडियावाले भी पहुंच गए थे. तब माई-बाबूजी ने सोचा ‘कुछ बड़ा हुआ है क्या?’ मेरे मां-पिताजी ने मुझे कभी बड़े पर्दे पर नहीं देखा है. कभी किसी ने कम्प्यूटर, लैपटॉप पर दिखा दिया तो दिखा दिया. आज भी गांव के मेरे घर में टीवी नहीं है, क्योंकि टीवी चाहिए ही नहीं. यह उनकी अपनी चॉइस है. दरवाज़े पर छह गायें हैं. उन्हें इसी में ख़ुशी मिलती है.
मुझे अपने माता-पिता को लेकर संतुष्टि महसूस होती है. मैं पिछले 15-20 सालों से उनसे दूर हूं. उन्हें पता नहीं था कि ये क्या कर रहा है. बस इतना जानते थे कि कुछ ऐक्टिंग-वेक्टिंग कर रहा है. पता नहीं उसमें होगा या नहीं होगा, क्योंकि यह बहुत मुश्क़िल काम है. अब उन्हें लगता है कि इसने कुछ अच्छा किया होगा, क्योंकि गांव जाता हूं तो कभी जिलाधिकारी आ जाते हैं या बड़े-बड़े पदाधिकारी आ जाते हैं. इससे उन्हें अच्छा लगता है. उनकी आंखों में सुकून देखता हूं. उन्हें सबसे बड़ा सुकून यही है कि चलो हमसे दूर रहा कोई बात नहीं, भटका तो नहीं. ग़लत नहीं किया. यही मेरे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है.