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नीतीश की राजनीतिक कुशलता, जटिलता और बिहार की विरासत

अनूप नारायण सिंह 

मिथिला हिन्दी न्यूज :-बिहार के राजनीति नीतीश को दो फ्रंट से हमले झेलने पड़ते है. यह अधिक बड़ी चुनौती है. उन्हें उग्र हिंदुत्व से भी लड़ना पड़ता है और लालू परिवार को भी निपटाना पड़ता है. नीतीश कुशल राजनेता की तरफ फ्रंट से जुबानी हमले कम ही करते है. इस काम के लिए उनके प्रवक्ता कोई कसर बाकी नहीं रखते है.

बंगाल की राजनीति में ज्योति बसु जब मुख्यमंत्री थे तब ममता बनर्जी को ‘वो लड़की’ कहकर ही संबोधित करते थे. मतलब अधिक गंभीरता से नहीं लेते थे. बिहार में नीतीश कुमार तेजस्वी को सदन में ‘सुनो बाबू’ कह चुके है.. और अब भी ‘क्या-क्या बोलता रहता है, उसको कुछ पता है’ जैसे लफ्जों से इग्नोर कर देते है. राजनीति में यह गंभीरता शायद ही मौजूदा दौर के किसी नेता में है. यूँ कहे कि अपने विरोधी को ऊँगली पर कैसे घुमा देते है, यह नये दौर के लोगों को सिखने की जरुरत है.

नीतीश 1989 में केन्द्रीय कृषि राज्य मंत्री बन चुके थे. समता पार्टी के बैनर तले 1995 में अकेले चुनाव लड़ कर 7 सीट जीते थे. जबकि कुर्मी चेतना रैली 1994 में हुई थी. जिसकी भीड़ का सम्पूर्ण क्रांति के बाद गाँधी मैदान के लिए रिकॉर्ड है. ऐसे में यह कहना हास्यपद है कि नीतीश कुर्मी चेतना रैली की उपज है. कुर्मी चेतना रैली के संस्थापक संयोजक पटना के राजीव पटेल थे जबकि संयोजक सतीश कुमार थे. 2014 के लहर में नीतीश का आधार वोट भी खिसक कर बीजेपी में चला गया था. तब भी उन्हें 17 प्रतिशत वोट मिले थे.

असल में नीतीश कुमार को कर्पूरी ठाकुर वाली स्थिति से दो-चार होना पड़ता है जिन्हें सवर्णवाद और यादववाद दोनों से लड़ना है. कर्पूरी ठाकुर की तरह ही नीतीश कभी एग्रेसिव नहीं होते है, भले ही उन्हें कोई छाती तोड़ने की बात कहे या गालियां दे. हाँ, समय के साथ राजनीतिक विरोधी को हाशिए पर डाल देने, आधार वर्ग के लिए नीतियों को लागू करने की चपलता और राजनीतिक चतुरता इन्हें कर्पूरी ठाकुर से आगे ले जाती है.. जिसके कारण लगभग 30 वर्षों से बिहार की राजनीति की के केंद्र में बने हुए है. नीतीश उस सोच के लिए चुनौति भी है जो कहता है कि हमारी जाति की संख्या अधिक है तो सीएम हमारा ही होना चाहिए.. और संख्या बल में कम अन्य समूहों के लिए उम्मीद भी है कि हाँ, कर्मठता हो तो जाति की संख्या मायने नहीं रखती है.

वैसे नीतीश कुमार ने प्रारंभ में जिस लव-कुश समीकरण के आधार पर लालू प्रसाद को सता से बेदखल करने के लिए बीजेपी से हाथ मिलाया था. बिहार के साथ-साथ उस वर्ग के लिए नीतीश कुमार ने दूरगामी काम भी किया है. जिसे समझने की जरुरत है.

भारत के इतिहास में मगध का महत्वपूर्ण स्थान है. बिहार के लिए मगध की विरासत प्रेरणास्रोत है. चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक, महात्मा बुद्ध ऐसी विरासत है. जो आने वाली शताब्दियों तक बिहारियों को देश का बागडोर सँभालने के लिए प्रेरित करेगा. इस विरासत पर जातीय दृष्टिकोण से कोयरी-कुर्मी भी दावा करते है.

नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ रहने के बावजूद भी बिहार में बुद्धिज्म की विरासत के नक़्शे को संवार दिया है. जिसकी चमक से आने वाली पीढियां अँधेरे में गुम हो चुके अपने इतिहास के नायकों का तलाश करेगी तो नीतीश कुमार का योगदान बहुत याद आएगा.

हनुमान मंदिर के सामने बांकीपुर जेल की जगह बुद्धा पार्क, बिहार में बुद्धा सर्किट, श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल से बड़ा सम्राट अशोक कन्वेशन हॉल, राजगीर में बुद्ध की विशाल मूर्ति, बुद्धिज्म पर्यटन को संवारना, बुद्धिस्ट सर्किट का विकास, पटना के संग्रहालय में बुद्ध-मौर्य के अवशेषों को संरक्षित करने समेत दर्जनों ऐसे काम किये है जो आरएसएस को चिढ़ाता है. बिहार में कृषक जातियों का यह विरासत ही उसे प्रेरित करेगा कि वह अपने खोये हुए गौरव को प्राप्त करने के लिए उठ खड़ा हो.

अयोध्या की विरासत पर राजनीति कर यदि ब्राम्हण खेमा देश की गद्दी संभाल सकता है तो मगध के गौरव के दम कृषक समाज बिहार पर लम्बे समय तक राज करने का ख्वाब क्यों नहीं देख सकता है. नीतीश के समर्थक कुर्मी-कोयरी लोग अब न पूछे कि नीतीश ने उनके लिए क्या किया है. सता में आने के बाद ही गवर्नेंस, गवर्नेंस, गवर्नेंस की रट लगाने वाले नीतीश कुमार से अपने आधार वोट के लिए इससे बड़ा कुछ करने की उम्मीद बेईमानी होगा.

मुश्किल तो यह है कि क्या यह समाज नीतीश कुमार के योगदान को समझ सकेगा.. अपनी विरासत को संभाल सकेगा, जिस पर संघ की कुदृष्टि लगी रहती है. सनद रहे कि हिंदुस्तान में प्रतीकों की राजनीति होती है, बाकी डेवलपमेंट सेकेंडरी चीज होता है. क्या आप अपने प्रतीकों को संभाल सकेंगे. क्या आप अपने प्रतीकों को संवारने वाले के साथ खड़े हो सकेंगे. क्या आप गंभीरता को समझ रहे है?

इन तमाम चुनौतियो के बावजूद बहुत कमियां है. कोई भी पूर्ण नहीं होता. मसलन जब नीतीश कुमार सता में आये थे तो चुनौती थी कि सफ़ेदपाशों पर नकेल कस कर सरकारी मशीनरी को काम करने का रास्ता प्रशस्त करें. अब 15 वर्षों बाद दूसरी चुनौती है कि सरकारी मशीनरी की नौकरशाही को भी लोकशाही का नथिया पहना दे. गुणवत्तायुक्त प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा और समय के अनुसार बहाली प्रक्रिया को पूरा करना बड़ी समस्या है. सरकार में आने के बाद नीतीश इन चुनौतियों पर लगाम लगा सकेंगे तो लम्बे समय तक मुख्यमंत्री रहने के मामले में निःसंदेह वे ज्योति बसु का रिकॉर्ड तोड़ सकते है.

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