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वेलेंटाइन डे भारतीय संस्कृति के लिए बहुत बड़ा खतरा : पंकज झा शास्त्री

पंकज झा शास्त्री


आज जिस तरह से प्रेम मे बदलाव दिख रही है इससे साफ लगता है कि प्रेम गलत दिशा में ले जाया जा रहा है और इसे वेलेंटाइन डे के रूप में भयंकर वाइरस भारतीय संस्कृति मे घुस का युवाओं को भटका रहा है। जिस कारण भारत के सभ्य संस्कृति को विलुप्त होने का साफ खतरा है। वेलेंटाइन डेअगर आप सोच रहे हैं कि केवल इसे चाहने वाला युवा वर्ग ही इस दिन का इंतजार विशेष रूप से करता है तो आप गलत हैं क्योंकि इसका विरोध करने वाले बजरंग दल, हिन्दू महासभा जैसे हिन्दूवादी संगठन भी इस दिन का इंतजार उतनी ही बेसब्री से करते हैं। इसके अलावा आज के भौतिकवादी युग में जब हर मौके और हर भावना का बाज़ारीकरण हो गया हो, ऐसे दौर में गिफ्ट्स टेडी बियर चॉकलेट और फूलों का बाजार भी इस दिन का इंतजार उतनी ही व्याकुलता से करता है।
प्रेम जो बन गया है प्रोडक्ट
आज प्रेम आपके दिल और उसकी भावनाओं तक सीमित रहने वाला केवल आपका एक निजी मामला नहीं रह गया है। उपभोक्तावाद और बाज़ारवाद के इस दौर में प्रेम और उसकी अभिव्यक्ति दोनों ही बाज़ारवाद का शिकार हो गए हैं। आज प्रेम छुप कर करने वाली चीज नहीं है, फेसबुक इंस्टाग्राम पर शेयर करने वाली चीज है। आज प्यार वो नहीं है जो निस्वार्थ होता है और बदले में कुछ नहीं चाहता बल्कि आज प्यार वो है जो त्याग नहीं अधिकार मांगता है। आज मल्टीनेशनल कंपनियां बड़ी चालाकी से हमें यह समझाने में सफल हो गई हैं कि प्रेम को तो महंगे उपहार देकर जताया जाता है। वे हमें करोड़ों के विज्ञापनों से यह बात समझा कर अरबों कमाने में कामयाब हो गई हैं कि "इफ यू लव समवन शो इट", यानी, अगर आप किसी से प्रेम करते हैं तो "जताइए" और वैलेंटाइन डे इसके लिए सबसे अच्छा दिन है।
प्रेम की अभिव्यक्ति तोहफों और बाज़ारवाद की मोहताज़ हो कर रह गई है।
यह वाकई में खेद का विषय है कि राधा और मीरा के देश में जहां प्रेम की परिभाषा एक अलौकिक एहसास के साथ शुरू होकर समर्पण और भक्ति पर खत्म होती थी आज उस देश में प्रेम की अभिव्यक्ति तोहफों और बाज़ारवाद की मोहताज़ हो कर रह गई है। उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि एक समाज के रूप में पश्चिमी अंधानुकरण के चलते हम विषय की गहराई में उतर कर चीज़ों को समझकर उसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में उसकी उपयोगिता नहीं देखते। सामाजिक परिपक्वता दिखाने के बजाए कथित आधुनिकता के नाम पर बाज़ारवाद का शिकार होकर अपनी मानसिक गुलामी ही प्रदर्शित करते हैं। 
तो अब प्रश्न यह है कि हमारे देश में जहां की संस्कृति में विवाह हमारे जीवन का एक अहम संस्कार है उस देश में ऐसे दिन को त्यौहार के रूप में मनाने का क्या औचित्य है जिसके मूल में विवाह नामक संस्था का ही विरोध हो ? क्योंकि भारत में विवाह का कभी भी विरोध नहीं किया गया बल्कि यह तो खुद ही पांच छ दिनों तक चलने वाला दो परिवारों का सामाजिक उत्सव है। दरअसल, यहां यह समझना भी जरूरी है कि मुख्य विषय वैलेंटाइन डे के विरोध या समर्थन का नहीं है बल्कि किसी दिन या त्योहार को मनाने के महत्व का है। किसी भी त्योहार को मनाने या किसी संस्कृति को अपनाने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन हमें किसी भी कार्य को करने से पहले इतना तो विचार कर ही लेना चाहिए कि इसका औचित्य क्या है? मै समझता हूं इससे सभी को सम्भल जाना चाहिए खास कर युवा वर्गो को अधिक विचार करने की जरूरत है।

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