मिथिला हिन्दी न्यूज :- 7 जुलाई 1896,बंबई का वाटसन थिएटर लुमीयर ब्रादर्स नामक दो फ्रांसीसी अपनी फिल्में लेकर भारत आये। उक्त थिएटर में उनका प्रीमियर हुआ। प्रीमियर करीब 200 लोगों ने देखा। टिकट दर थी दो रुपये प्रति व्यक्ति। यह उन दिनों एक बड़ी रकम थी। एक सप्ताह बाद इनकी ये फिल्में बाकायादा नावेल्टी थिएटर में प्रदर्शित की गयीं। बंबई का यह थिएटर बाद में एक्सेल्सियर सिनेमा के नाम से मशहूर हुआ। रोज इन फिल्मों के दो से तीन शो किये जाते थे, टिकट दर थी दो आना से लेकर दो रुपये तक। इनमें 12 लघु फिल्में दिखायी जाती थीं। इनमें ‘अराइवल आफ ए ट्रेन’, ‘द सी बाथ’ तथा ‘ले़डीज एंड सोल्जर्स आन ह्वील’ प्रमुख थीं। लुमीयर बंधुओं ने जब भारतीयों को पहली बार सिनेमा से परिचित कराया तो लोग बेजान तसवीरों को चलता-फिरता देख दंग रह गये। हालांकि उन दिनों इन फिल्मों के लिए जो टिकट दर रखी गयी थी, वह काफी थी लेकिन फिर भी लोगों ने इस अजूबे को अपार संख्या में देखा। पत्र-पत्रिकाओं ने भी इस नयी चीज की तारीफों के पुल बांध दिये। एक बार इन फिल्मो को लोकप्रियता मिली , तो भारत में बाहर से फिल्में आने और प्रदर्शित होने लगीं। 1904 में मणि सेठना ने भारत का पहला सिनेमाघर बमाया, जो विशेष रूप से फिल्मों के प्रदर्शन के लिए ही बनाया गया था। इसमें नियमित फिल्मों का प्रदर्शन होने लगा। उसमें सबसे पहले विदेश से आयी दो भागों मे बनी फिल्म ‘द लाइफ आफ क्राइस्ट’ प्रदर्शित की गयी। यही वह फिल्म थी जिसने भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फालके को भारत में सिनेमा की नींव रखने को प्रेरित किया।हालांकि स्वर्गीय दादा साहब फालके को भारतीय सिनेमा का जनक होने और पूरी लंबाई के कथाचित्र बनाने का गौरव हासिल है लेकिन उनसे पहले भी महाराष्ट्र में फिल्म निर्माण के कई प्रयास हुए। लुमीयर बंधुओं की फिल्मों के प्रदर्शन के एक वर्ष के भीतर सखाराम भाटवाडेकर उर्फ सवे दादा ने फिल्म बनाने की कोशिश की। उन्होंने पुंडलीक और कृष्ण नाहवी के बीच कुश्ती फिल्मायी थी। यह कुश्ती इसी उद्देश्य से विशेष रूप से बंबई के हैंगिंग गार्डन में आयोजित की गयी थी। शूटिंग के बाद फिल्म को प्रोसेसिंग के लिए इंग्लैंड भेजा गया। वहां से जब वह फिल्म प्रोसेस होकर आयी तो सवे दादा अपने काम का नतीजा देख कर बहुत खुश हुए। पहली बार यह फिल्म रात के वक्त बंबई के खुले मैदान में दिखायी गयी। उसके बाद उन्होंने अपनी यह फिल्म पेरी थिएटर में प्रदर्शित की । टिकट की दर थी आठ आना से तीन रुपये तक। अकसर हर शो में उनको 300 रुपये तक मिल जाते थे। उन्होने भगवान कृष्ण के जीवन पर भी एक फिल्म बनाने का निश्चय किया था लेकिन भाई की मौत ने उन्हें तोड़ दिया। उन्होंने अपना कैमरा बेच दिया और फिल्म निर्माण बंद कर दिया।इसके बाद 1911 में अनंतराम परशुराम कशंडीकर, एस एन पाटंकर और वी पी दिवाकर ने यह कोशिश जारी रखी। 1920 में इन्होंने बालगंगाधर तिलक की अंत्येष्टि की फिल्म बनायी। 1912 में उन्होंने 1000 फुट की एक फिल्म ‘ सावित्री’ बनायी। यह धार्मिक फिल्में बनाने की शुरुआत थी। नारायण गोविंद चित्रे और आर पी टिपणीस ने दादा साहब तोर्ने के निर्देशन में नाटक ‘ पुंडलीक ’ फिल्मा डाला और इसे 1909 में कोरोनेशन थिएटर बंबई में प्रदर्शित किया गया। कलकत्ता में हीरालाल सेन, धीरेन गांगुली, मद्रास में नटराज मुदलियार, महाराष्ट्र में बाबूराव पेंटर तथा अन्य लोग भी इस दिशा में सक्रिय थे।तसवीरें चलती-फिरती हैं, हंसती तथा इशारे करती हैं , सुन कर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। न बोलनेवाली उन तसवीरों को देखने के लिए लोग उतावले हो उठे। पांच दशक पूर्व ‘ टूरिंग टाकीज’ यानी चलते-फिरते सिनेमा अधिक थे। किसी बड़ी आबादी वाले शहर या कस्बे में तंबू तान दिया , दीवार कि जगह टीन लगा दी और सिनेमा शुरू । उस जमाने में एक ही प्रोज्क्टर होता था इसलिए फिल्म जितने रीलों की होती थी, उतनी बार प्रोजेक्टर रोकना पड़ता था और उतने ही मध्यांतर हुआ करते थे । परदे के पास बैठनेवाले दर्शकों के लिए काठ की फोल्डिंग कुर्सियां हुआ करती थीं। फिल्म में आवाज के सिवा सब कुछ होता था- बातचीत का हावभाव, मारपीट, घुड़सवारी वगैरह। सिनेमा की लोकप्रियता बढ़ी, तो धीरे-धीरे कुछ सिनेमाघर भी बनने लगे। चूंकि वह अवाक फिल्मों का युग था इसलिए कहीं-कहीं पर सिनेमा प्रोजेक्टर का आपरेटर दर्शकों को समझाने के लिए फिल्म की कहानी उसी तरह बताता जाता था, जिस तरह आजकल कमेंटेटर खेल का आंखों देखा हाल बताता है। जब खलनायक के चंगुल में फंसी नायिका सहायता के लिए चिल्लाती और नायक घोड़ा दौड़ाता हुआ आता, तो आपरेटर घोड़ों की टापों की आवाज सुनाते हुए बताता-अब आ रहा है नायिका का बहादुर प्रेमी, जो खलनायक को मार-मार कर भुरता बना देगा। कभी-कभी फिल्म के संवाद परदे पर लिखे दिखते थे। अगर फिल्म की कहानी आगे छलांग लगवानी होती तो बीच की घटनाएं लिख कर बता दी जाती थीं।अवाक फिल्मों के जमाने में लोग चलती-फिरती तसवीरों का आनंद लेने जाते थे। फिल्म में कौन काम कर रहा है, इसके प्रति उनका विशेष आकर्षण नहीं था। कलाकारों की लोकप्रियता तो तब बढ़ी , जब फिल्में बोलने लगीं । प्रारंभ में धार्मिक फिल्में ही ज्यादा बनती थीं। भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र ’ भी धार्मिक फिल्म थी। उस समय की कुछ प्रमुख अवाक धार्मिक फिल्में थीं फालके फिल्म कंपनी की- राजा हरिश्चंद्र, भस्मासुर मोहनी, सत्यवान-सावित्री और लंका दहन, हिंदुस्तान फिल्म कंपनी की –कृष्ण जन्म, कालिया मर्दन, बालि-सुग्रीव, नल-दमयंती, परशुराम, दक्ष प्रजापति, सत्यभामा विवाह, द्रौपदी वस्त्रहरण, जरासंध वध, शिशुपाल वध, लव-कुश, सती महानंदा और सेतुबंधन, महाराष्ट्र फिल्म कंपनी की- वत्सला हरण, गज गौरी, कृष्णावतार, सती पद्मिनी, सावित्री, मुरलीवाला तथा लंका, प्रभात फिल्म कंपनी की-गोपालकृष्ण। इसके अलावा कुछ और प्रयास हुए, जिनमें दादा साहब फालके की 1932 में बनी अवाक फिल्म ‘ श्यामसुंदर’।उस वक्त धार्मिक फिल्मों की एक तरह से बाढ़ आ गयी थी। इसकी वजह यह कि उन दिनों भारतीय मानस में धर्म बड़े गहरे तक पैठा था और उसके प्रति लोगों में गहरी आस्था थी। नाटकों और रामलीला में धार्मिक कथाएं दिखायी जाती थीं, धार्मिक कथाओं से लोगों ने एक तादाम्य-सा स्थापित कर लिया था,इसलिए ऐसी फिल्में समझने में दिक्कत नहीं होती थी। उन दिनों धार्मिक –पौराणिक फिल्में कामयाब भी होती थीं। ऐसा नहीं है कि तब अन्य किस्म की फिल्में नहीं बनती थीं, लेकिन प्रधानता धार्मिक फिल्मों की थी। यहां यह जिक्र करना जरूरी है कि महिला पात्र की भूमिका निभाने के लिए महिलाएं काफी अरसे तक नहीं मिलीं। हिंदुस्तान फिल्म कंपनी की ‘कीचक वध’ तक यह स्थिति बरकरार रही। इस फिल्म में भी कीचक की पत्नी की भूमिका सखाराम जाधव नामक एक युवक ने की थी। इन सारी मुसीबतों और अड़चनों के बावजूद धार्मिक फिल्मों की यात्रा जारी रही और बोलती फिल्मों के युग तक इनका सिलसिला चलता रहा। इनके कथानक का आधार मूलतः रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्य होते थे। राम-कृष्ण की जीवनलीला पर फिल्में बनीं , हनुमान जी पर और संतो-देवताओं पर फिल्में बनीं।बाद में मां की भूमिकाओं के लिए मशहूर निरुपा राय कभी धार्मिक फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री थीं। उन्होंने कुल मिला कर तकरीबन 40 धार्मिक-पौराणिक फिल्मों में काम किया। वे चार फिल्मों में पार्वती और तीन में सीता की भूमिका में आयी थीं। परदे की देवी के रूप में वे इतना ख्यात हो गयी थीं कि जब उन्होंने ‘सिंदबाद द सेलर’, ‘चालबाज’ और ‘बाजीगर’ जैसी स्टंट फिल्मों में काम किया , तो दर्शकों का उनकी इन फिल्मों के प्रति रुख अच्छा नहीं रहा। धार्मिक फिल्मों में उनकी कितनी धूम थी , इसका पता इससे चलता है कि लोग जिन सिनेमाघरों में उनकी धार्मिक फिल्में देखने जाते, वहां पूजा करते थे। उनकी धार्मिक फिल्में थीं-महासती सावित्री, सती मदालसा, नवरात्रि, चक्रधारी, रामस्वामी, वामन अवतार,गौरी पूजा, शेषनाग, अप्सरा, चंडी पूजा, जय हनुमान, राम हनुमान युद्ध, नागमणि, श्री रामभक्त विभीषण, नरसी भगत, हर हर महादेव, द्वारकाधीश आदि। इसके बाद उन्होंने कई सामाजिक फिल्मों में भूमिकाएं निभायीं और बाद में चरित्र भूमिकाएं करने लगीं। जयश्री गड़कर भी धार्मिक फिल्मों की होरोइन के रूप में काफी ख्यात हुईं। अपने जमाने में शोभना समर्थ भी धार्मिक फिल्म ‘रामराज्य’ की सीता के रूप में बहुत ख्यात हुईं। बाद के दिनों में अनिता गुहा, कानन कौशल आदि काफी लोकप्रिय हुईं।बहरहाल, फिल्मों के निर्माण के शुरू के दौर में 60 प्रतिशत से भी अधिक फिल्में धार्मिक-पौराणिक कथानक पर बनती थीं। बाद के वक्त में बेरोजगारी से पीड़ित युवा वर्ग की रुचि धर्म में नहीं रह गयी। वह रोजी-रोटी की जुगाड़ में तबाह रहने लगा। ऐसे में धार्मिक फंतासी से उसे खुशी नहीं मिलती थी। वह हलकी-फुलकी मनोरंजक फिल्मों की ओर मुड़ गया। धार्मिक फिल्मों से युवा वर्ग विमुख हुआ, तो ऐसी फिल्में महज पुरानी पीढ़ी के लोगों तक सीमित रह गयीं।धार्मिक फिल्मों के बाद ऐतिहासिक फिल्मों का दौर आया। यह भी काफी लंबा खिंचा। रंजीत स्टूडियो ने 1934 में ‘राजपूतानी’ पेश की। इतिहास के प्रसिद्ध चरित्रों और घटनाओं पर फिल्में बनने लगीं। उस वक्त देश का माहौल ऐसा था , जिसमें ऐसी फिल्में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभा सकती थीं। वी. शांताराम ने एक फिल्म निर्देशित की ‘उदय काल’ जिसका नाम उन्होंने ‘फ्लैग आफ फ्रीडम’ (स्वराज्य तोरण) रखा। भला अंग्रेज सरकार को यह नाम क्यों भाने लगा। इस नाम पर एतराज हुआ और यह फिल्म ‘थंडर आफ हिल्स’ बन गयी। यह फिल्म वी. शांताराम ने प्रभात फिल्म कंपनी के बैनर में बनायी थी और इसमें उनकी शिवाजी की भूमिका की बड़ी प्रशंसा हुई थी। 18 नवंबर 1901 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में जन्में वणकुद्रे शांताराम ने 12 वर्ष की अल्पायु में गंधर्व नाटक मंडली कोल्हापुर में छोटी-छोटी भूमिकाओं से अपना कैरियर शुरू किया। धीरे-धीरे अपनी मेहनत और लगन से आगे बढ़ते गये। 1929 में उन्होंने कोल्हापुर में प्रभात फिल्म कंपनी चार अन्य लोगों की मदद से स्थापित की। इसके अंतर्गत उन्होंने ‘माई क्वीन’ (रानी साहिबा) , ‘फाइटिंग ब्लेड (खूनी खंजर), चंद्रसेना और स्टोलन ब्राइड (जुल्म) बनायी। उनकी ये सभी फिल्में अवाक थीं।1931 में ‘आलमआरा’ से नयी क्रांति आयी। फिल्मों ने बोलना सीख लिया। अब तक फिल्में शैशव को पीछे छोड़ किशोरावस्था में पहुंच चुकी थीं। बोलती फिल्मों का युग आया , तो शांताराम की फिल्मों का भी नया दौर आया। उनकी पहली बोलती फिल्म थी ‘अयोध्या का राजा’ (1932)। 1942 में उन्होंने बंबई में राजकमल कलामंदिर की स्थापना की। प्रभात फिल्म कंपनी के बैनर में ‘जलती निशानी’, ‘सैरंध्री’, ‘अमृत मंथन’, ‘धर्मात्मा’, ‘अमर ज्योति’, के अलावा ‘दुनिया न माने’, ‘आदमी’ और ‘पड़ोसी’ जैसी सोद्देश्य फिल्में देने के बाद उन्होंने राजकमल कलामंदिर के बैनर तले ‘शकुंतला’, ‘माली’, ‘पर्वत पर अपना डेरा’, ‘डाक्टर कोटणीस की अमर कहानी’, ‘मतवाला शायर’, ‘अंधों की दुनिया’, ‘बनवासी’, ‘भूल’, ‘अपना देश’, ‘दहेज’, ‘परछाईं’, ‘अमर भोपाली’, ‘सुंरग’, ‘सुबह का तारा’, ‘झनक झनक पायल बाजे’, ‘तूफान और दिया’, ‘दो आंखें और बारह हाथ’, ‘नवरग’, ‘फूल और कलियां’, ‘स्त्री’, ‘सेहरा’, ‘गीत गाया पत्थरों ने’, ‘लड़की सहयाद्री की’,‘बूंद जो बन गयी मोती’, ‘जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली’ बनायी। शांताराम की फिल्मों की एक विशेषता रही है कि वे हर मायने में औरों से अलग होतीं। प्रस्तुतीकरण में नवीनता, संगीत में नवीनता और गायन में भी नवीनता |रामशास्त्री’ प्रभात चित्र ने उस वक्त बनायी थी, जब वी. शांताराम प्रभात को छोड़ चुके थे। यह फिल्म पेशवाओं के युग के इतिहास पर आधारित भारत की श्रेष्ठ ऐतिहासिक फिल्म थी। इतने ऊंचे स्तर की ऐतिहासिक फिल्म उसके बाद नहीं बनायी जा सकी। इस फिल्म को देख कर ही सत्यजित राय फिल्म निर्माण के लिए प्रेरित हुए। पेशवाओं के शासन के वक्त की सही स्थिति को फिल्म में पेश करने का पूरी ईमानदारी से प्रयास किया गया था। कहते हैं कि निर्माता एस फत्तेहलाल ने इसकी शूटिंग की हुई कई हजार फुट फिल्म रद्द करने की जिद की थी, क्योंकि उनका विश्वास था कि यह फिल्म उतनी व्यावसायिक नहीं बन पायी, जितना वे चाहते थे। इसकी पटकथा और संवाद शिवराम वासीकर ने लिखे थे। कोई ऐतिहासिक चूक न रह जाये , इसके लिए पटकथा लेखन के वक्त प्रख्यात इतिहासकारों तक से सलाह ली गयी थी। इस फिल्म में संस्कृत के विद्वान रामशास्त्री द्वारा सत्तालोलुप पेशवा को सन्मार्ग पर लाने के प्रयास की कहानी कही गयी थी। इस फिल्म के तीन निर्देशक थे। इसकी शुरुआती शूटिंग के कुछ अरसा बाद ही राजा नेने ने प्रभात छोड़ दिया। इसके बाद विश्राम बेड़कर ने निर्देशन संभाला, लेकिन उन्होंने भी यह कंपनी छोड़ दी। अंततः गजानन जागीरदार के निर्देशन में यह फिल्म पूरी हुई। गजानन जागीरदार ने इसमें रामशास्त्री की भूमिका भी की थी। ललिता पवार आनंदीबाई बनी थीं । रामशास्त्री के बचपन की भूमिका में अनंत मराठे ने और पत्नी की भूमिका बेबी शकुंतला ने निभायी थी। सप्रू पेशवा माधवराव बने थे।वैसे भारत की पहली ऐतिहासिक फिल्म ‘नूरजहां’ 1932 में बनायी गयी थी। इसका निर्माण अर्देशीर ईरानी ने किया था। इस फिल्म का निर्देशन हालीवुड में फिल्म निर्माण का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने वाले एजरा मीर ने किया था। यह पहले अवाक फिल्म के रूप में बनायी गयी थी। बाद में बोलती फिल्मों का युग आते ही इसके कुछ खास हिस्से हिंदी और अंग्रेजी भाषा में डब कर दिये गये। इसके मुख्य कलाकार थे –मजहर खान (पुराने) जमशेदजी , जिल्लू न्यामपल्ली, मुबारक और विमला। इस फिल्म के दोनों संस्करण (हिंदी-अंग्रेजी) बाक्स आफिस पर पिट गये। इसके बाद रमाशंकर चौधरी की फिल्म ‘अनारकली’ आयी। यह भी कोई प्रभाव नहीं छोड़ सकी।हालांकि अवाक ‘अनारकली’ खूब चली थी। ऐतिहासिक फिल्मों को नयी जान दी सोहराब मोदी की फिल्म ‘पुकार’ (1939)ने । यह फिल्म बेहद कामयाब रही। और इसने ऐतिहासिक फिल्मों के लिए नयी राह खोल दी। मिनर्वा मूवीटोन की इस फिल्म में चंद्रशेखर, नसीम बानो, सोहराब मोदी और सरदार अख्तर ने प्रमुख भूमिकाएं निभायी थीं। यह फिल्म जहांगीर की इंसाफपरस्ती को दरसाती थी। सोहराब मोदी ने सर्वाधिक ऐतिहासिक फिल्में बनायीं। इनमें –सिकंदर, पृथ्वीवल्लभ, झांसी की रानी, मिर्जा गालिब, एक दिन का सुलतान, शीशमहल तथा राजहठ शामिल हैं।अन्य उल्लेखनीय ऐतिहासिक फिल्में हैं-के आसिफ कृत स्टर्लिंग इन्वेस्टमेंट कारपोरेशन लिमिटेड की अविस्मरणीय फिल्म ‘मुगले आजम’। इसमें दिलीप कुमार , मधुबाला, पृथ्वीराज कपूर और दुर्गा खोटे की प्रमुख भूमिकाएं थीं। संगीतकार नौशाद ने इसका बड़ा ही पुरअसर और कर्णप्रिय संगीत दिया था। सलीम और अनारकली की प्रेमकथा पर आधारित कई फिल्में बनीं, जिनमें एक फिल्मिस्तान की ‘अनारकली’ भी थी। इसमें प्रदीप कुमार और वीणा राय की प्रमुख भूमिकाएं थीं। संगीतकार सी. रामचंद्र ने इसका बड़ा सुरीला संगीत दिया था। इसके गीत बहुत लोकप्रिय हुए थे। यह फिल्म भी बहुत सफल हुई थी। इस जोड़ी की एक और सफल फिल्म थी ‘ताजमहल’। इसके अलावा ऐतिहासिक कथानक पर कई फिल्में बनती रहीं। यहां तक कि सत्यजित राय की ‘शतरंज का खिलाड़ी’ तक यह सिलसिला चलता रहा। कमाल अमरोही ने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर ‘ रजिया सुलतान’ बनायी जिसमें धर्मेंद्र और हेमा मालिनी की प्रमुख भूमिकाएं थीं। संवादों के कठिन होने के चलते यह फिल्म दर्शकों के सिर के ऊपर से गुजर गयी। किसी को समझ न आने के कारण यह बाक्स आफिस पर पिट गयी हालांकि इसके भव्य सेटों की काफी प्रशंसा हुई। नायकों में प्रदीप कुमार ऐतिहासिक फिल्मों के काफी लोकप्रिय नायक थे। धीरे-धीरे फार्मूला फिल्मों की भीड़ में ऐतिहासिक फिल्में कहीं दब गयीं।अवाक फिल्मों के जमाने में लोग चलती-फिरती तस्वीरों का आनंद लेते थे। फिल्म में कौन-कौन काम रहा है, इसके प्रति उनका कोई आकर्षण नहीं था। कलाकारों की लोकप्रियता तब बढ़ी , जब फिल्में बोलने लगीं। आरंभ से ही दो तरह की फिल्में ज्यादा बनती थीं। धार्मिक-ऐतिहासिक या मारधाड़वाली स्टंट फिल्में, ऐतिहासिक फिल्में। ऐतिहासिक फिल्मों के लोकप्रिय होने का कारण यह था कि एक तो इनके सेट भव्य होते थे और युद्ध के दृश्य होते थे। सबसे बड़ा आकर्षण यह था कि दर्शक को यह पता होता था कि वह सच्ची कहानी देख रहा है। मारधाड़वाली फिल्मों की सबसे लोकप्रिय जोड़ी थी-नाडिया-जानकावस की। ये तो उन दिनों स्टंट फिल्मों के सुपर स्टार माने ही जाने जाते थे, इनके साथ काम करने वाला घोड़ा पंजाब का बेटा भी किसी सुपर स्टार से कम नहीं था। जिस फिल्म में ये तीनों होते थे वह फिल्म सुपर हिट होती थी। नाडिया वह नायिका थी जिसके हाव-भाव, अभिनय और आचरण पुरुषों जैसे थे। काले रंग का जैकेट और नकाब , हाथ में लपलपाता हंटर या चमचमाती तलवार, यही पोशाक थी उसकी। वह ऊंची जगह पर खड़ी होकर मुंह में दो उंगलियां डाल कर सीटी बजाती , तो घोड़ा पंजाब का बेटा भागता हुआ वहां आ खड़ा होता, जहां से कूद कर नाडिया को उसकी पीठ पर बैठना था, दूसरी सीटी बजते ही घोड़ा सतर्क हो जाता और नाडिया के कूद कर बैठते ही भाग खड़ा होता। ये तीनों उस जमाने में उतने लोकप्रिय थे , जितने आज के नामी कलाकार । वाडिया ब्रदर्स की फिल्मों में यह जोड़ी पेश की गयी। इस जोड़ी की सर्वाधिक हिट फिल्म थी ‘हंटरवाली’।
(लेखक पत्रकार व फिल्म सेंसर बोर्ड कोलकाता रीजन एडवाइजरी कमेटी के सदस्य हैं)