सखियों संग मिल तोड़ती है फूल-पत्ते, सजाती है डाला। मधुर गीतों से भगवान शिव व पार्वती को करती है प्रशन्न।
पप्पू कुमार पूर्वे
मिथिलांचल संस्कृति से ओत-प्रोत व पति के दीर्घायु के लिए किए जाने वाली मधुश्रावणी लोक पर्व के गीतों से इन दिनों सीमावर्ती क्षेत्र गुंजयमान हो रहा है। पर्व को लेकर इन दिनों नवविवाहिताएं अपने सखी सहेलियों के साथ गाँव के आसपास के मन्दिरों एवं बगीचों में फूल और पत्ते तोड़ती हुई व्रत का भरपूर आनन्द लेती है, साथ ही अपने सखी सहेलियों संग आपस मे हसी ठिठोली करते दिखाई दे रही है।
आपको बता दें कि यह पावन पर्व मिथिला की नवविवाहिताएं बहुत ही धूम-धाम के साथ दुल्हन के रूप में सजधज कर मनाती है।
अमर सुहाग का यह अनोखा लोक पर्व का मधुश्रावणी व्रत इस वर्ष श्रावण कृष्ण पंचमी बुधवार से शुरू हो चूंकि है। पूरे पर्व में मिथिला की नवविवाहिताएं अपने पति की दीर्घायु के लिए माता गौरी की पूजा बासी फूल से करती हैं। एक दिन पहले संध्या काल में पुष्प, पत्र की व्यवस्था कर ली जाती है और उसी से माता पार्वती के साथ भगवान भोलेनाथ तथा विषहरी नागिन की विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है। पूरे अनुष्ठान के दौरान बिना नमक का भोजन ग्रहण करती हैं। खास बात यह है कि इस पूजा में पुरोहित की भूमिका में भी महिलाएं ही रहती हैं।
बासी फूल से माता गौरी की पूजा की है परंपरा
मान्यता है कि मधुश्रावणी व्रत के दौरान मिथिला की नवविवाहिता पूजा के एक दिन पूर्व ही सखी, सहेलियों के संग सज-धज कर पारंपरिक लोकगीत गाते हुए बाग-बगीचे, फुलवारी, बगिया आदि से नाना प्रकार के पुष्प, पात्र को अपनी डाली में सजाकर लाती हैं और प्रत्याशी सुबह अपने पति की लंबी आयु के लिए उसी फूल से भगवती गौरी के साथ विषहर यानी नागवश की पूजा करती हैं।
धार्मिक मान्यता है कि इस दौरान माता पार्वती की पूजा का विशेष महत्व होता है। पूजा के माध्यम से सुहागन अपनी सुहाग की रक्षा के लिए कामना करती हैं। इस दौरान ठुमरी और कजरी गाकर देवी उमा को प्रसन्न करती हैं। मधुश्रावणी की पूजा के बाद हर दिन अलग-अलग कथाएं भी कही जाती हैं। इन लोक कथाओं में सबसे प्रमुख राजा श्रीकर और उनकी बेटी की है।
ससुराल से मिली सामग्री से होती है पूजा-
पंडितों व आचार्यो का कहना है कि मधुश्रावणी पूजा के दौरान नवविवाहित महिलाएं अपने मायके चली जाती हैं और वहीं इस पर्व को मनाती हैं। इस पूरे अनुष्ठान में उपयोग होने वाली सामग्री, वस्त्र, श्रृंगार प्रसाधन, पूजन की व्यवस्था, विवाहिता की भोजन सामग्री आदि सब कुछ ससुराल से ही आता है।मैथिल संस्कृति के अनुसार शादी के पहले साल के सावन माह में नव विवाहिताएं अपने पति कि दीर्घायु के लिए मधुश्रावणी का व्रत करती हैं.
मधुश्रावणी पर्व जीवन में सिर्फ एक बार अथार्त शादी के पहले सावन को ही किया जाता है.पूरे पर्व के दौरान नवविवाहिताएं बिना नमक के भोजन ग्रहण करती है. शुरु व अन्तिम दिनों में व्रतियों द्वारा समाज व परिवार के लोगों में अंकुरी बाँटने की भी प्रथा देखने को मिलती है.
नवविवाहिताओं की देख रेख में अखंड दीप प्रज्वलित रहती हैं. कथा वाचिका प्रत्येक दिन नवविवाहिता को मधुश्रावणी व्रत कथा सुनाती हैं.पूजा के समय नवविवाहिता नए वस्त्र में आभूषण से सुसज्जित होकर कथा श्रवण के साथ पूजा ,अर्चना करती हैं.पंडितों का कहना है कि मधुश्रावणी पर्व कठिन तपस्या से कम नहीं है.मिथिला की पारंपरिक रीति-रिवाज के अनुसार देश-विदेश में रह रहे मैथिल के लोग भी इस व्रत को करती हैं। वहीं नेपाल में इस पर्व को बड़े ही पावन तरीके से मनाया जाता है।इस दौरान पूजन स्थल पर मैनी पुरइन के पत्ते पर विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनायी जाती है.और महादेव, गौरी, नाग-नागिन की प्रतिमा स्थापित कर विभिन्न प्रकार के नैवेद्य चढ़ा कर पूजन प्रारंभ होती है। इस व्रत में विशेष रूप से महादेव, गौरी, विषहरी व नाग देवता की पूजा की जाती है. प्रत्येक दिन अलग-अलग कथाओं में मैना पंचमी, विषहरी, बिहुला, मनसा, मंगला गौरी, पृथ्वी जन्म, समुद्र मंथन, सती की कथा व्रती को सुनायी जाती है.प्रात:काल की पूजा में गोसांई गीत व पावनी गीत गाये जाती है तथा संध्या की पूजा में कोहबर तथा संझौती गीत गाये जाती है. व्रत के अंतिम दिन व्रती के ससुराल से मिठाई, कपड़े, गहने सहित अन्य सौगात भेजे जाते हैं. अंतिम दिन टेमी दागने की भी परंपरा है.मधुश्रावणी के दिन जलते दीप के बाती से शरीर के कुछ स्थानों पर जैसे घुटने, और पैर के पंजे दागने की परम्परा भी वर्षों से चली आ रही हैं, जिसे टेमी दागना कहते हैं।