पप्पू कुमार पूर्वे
मधुबनी जिला मुख्यालय से 13 किलोमीटर दूर पंडौल प्रखंड के नाहर गांव में दुर्गा पूजा का इतिहास अति प्राचीन है। इस गांव में पूजा आयोजन का निर्णय श्मशान में सन 1943 में काफी विकट परिस्थिति में लिया गया था।वर्ष 1943 में नाहर गांव में हैजा का भयंकर प्रकोप हुआ था। श्मशान में लाशों का जलना अनवरत जारी था। ऐसी परिस्थिति में गांव के स्व. गीतानाथ झा, स्व. ज्योतिषी जटाधर झा, स्व. शोभानंद मिश्र आदि ने इस बात का निर्णय लिया कि अपने गांव में भी दुर्गा पूजा का विधिवत आयोजन करेंगे।
हालांकि, उस समय गांव के अगल-बगल कहीं भी मूर्ति स्थापित कर मां दुर्गा की पूजा नहीं होती थी। गांव के लोग सरिसब पाही में पूजा देखने जाते थे। मां दुर्गा की कृपा से उसके बाद गांव में फिर कभी महामारी का प्रकोप नहीं हुआ। उस समय सर्वाधिक चंदा पांच रुपये गांव के गोकुलानंद मिश्र ने दिए थे। उसके बाद प्रत्येक वर्ष यहां पारंपरिक विधि से मां दुर्गा की पूजा अर्चना की जा रही है। यहां ढोल, तासा, पिपही बजाकर पारंपरिक रूप से देवी दुर्गा की आराधना की जाती है। पूजा समिति के सचिव दयानंद झा, अध्यक्ष महेश झा कहते हैं कि पहले यहां नाटक का मंचन भी किया जाता था। भगवतीपुर पंचायत की नवनिर्वाचित मुखिया मधुमाला चौरसिया कहती हैं कि यहां दुर्गा मां की सच्चे मन से पूजा अर्चना करने वाले कभी खाली हाथ लौट कर नहीं जाते।
नवटोल में 172 वर्षों से बंगाली विधि से हो रही पूजा
नवटोल में दुर्गापूजा का 172वां वर्ष है। उपलब्ध ग्रन्थों एवं पुस्तकों की मानें तो वर्ष 1849 में दरभंगा महाराज रुद्र सिंह शारदीय नवरात्र में बंगाल गए थे। वहां हो रहे दुर्गा पूजा को देख वे इसके प्रति आकर्षित हुए। हालांकि, उनके राज पंडितों ने किसी अनहोनी की आशंका से बचने के लिए उन्हें स्वयं पूजा करने से मना किया। फिर यह निर्णय लिया गया कि किसी रिश्तेदार के यहां पूजा कराई जाए। तदुपरांत माधव सिंह के दौहित्र व महेश्वर सिंह के तत्कालीन सदर दीवान नवटोल निवासी कौशिकीनाथ उर्फ मनमोहन झा को सम्पत्ति देकर बंगाल पद्धति से दुर्गा पूजा करने का निर्देश दिया गया। वर्ष 1850 में पहली बार नवटोल में बंगाली विधि से मां दुर्गा की पूजा-अर्चना प्रारंभ की गई। तब से अब तक अनवरत नवटोल में मां दुर्गा की पूजा होती आ रही है। आरती के समय यहां सभी जाति वर्ग के लोग पहुंचते हैं।