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अतीत के पन्नों से : महेंद्रू घाट कभी उत्तर बि‍हार के लोगों के लि‍ए था लाइफ लाइन

अनूप नारायण सिंह 

उत्तर बिहार और दक्षिण बिहार को जोड़ने के लिए पटना के महेंद्रू घाट से सोनपुर के पास पहलेजा घाट के बीच रेलवे की स्टीमर सेवा काफी लोकप्रिय थी.पटना जंक्शन से सोनपुर तक के रेल टिकट पर दूरी 42 किलोमीटर अंकित रहती थी. पहलेजा घाट से सोनपुर रेलवे स्टेशन की दूरी 11 किलोमीटर थी.सेकेंड क्लास में ना कोई बेंच ना कुर्सी. जहां मर्जी हो बैठ जाइये. पहले दर्जे में सीसे के दरवाजे वाले केबिन और गद्देदार कुर्सियां से लैस होता था.पानी के ये जहाज स्टीम यानी भाप से चलते थे. स्टीमर में कोयले को जलाकर भाप तैयार किया जाता था और इसी भाप की ताकत से पानी काटने वाले स्टीमर के चप्पू तेज गति से चलते थे.40 साल पहले एक ऐसी रेल लाइन थी, जिस पर ट्रेन से सफर में यात्रियों को एक ऐसी अद्भुत रोमांच का अवसर मिलता था, जो अब यादों में ही तरोताजा है. यात्री ट्रेन से उतरकर गंगा नदी को स्टीमर में बैठकर पार करते थे और फिर ट्रेन में बैठते थे. यह यात्रा एक किलोमीटर की होती थी. खास बात यह है कि यात्रियों को स्टीमर में भी उसी क्लास में बैठाया जाता था, जिस क्लास में उनका ट्रेन में आरक्षण होता था.महेंद्रू घाट से पहलेजा घाट (सोनपुर तक) जाने का कि‍राया दो रुपये था.लेकि‍न पहलेजा से पटना लौटने का कि‍राया पटना घाट तक का कि‍राया भी दो रुपये था. महेंद्रू घाट से सरकारी जहाज खुलता था, जो डबल डेकर था. इसमें एक कैंटीन भी होता था. यात्री केवि‍न में गंगा की अठखेलि‍या देखने के लि‍ए खासतौर से बैठते थे. फर्स्ट क्ला‍स का टि‍कट दस रुपये और सेकेंड क्लास का दो रुपये लगता था. महेंद्रू घाट पर बहुत अच्छा कैंटीन था.
महेंद्र घाट से हर रोज सुबह 3.50, सुबह 8.30, दोपहर 11.15 13.10, शाम 17.30 रात 20 50 और 23.30 रात्रि में आखिरी स्टीमर सेवा पहलेजा घाट के लिए खुलती थी. महेंद्रू से पहलेजा घाट का सफर नदी की धारा के विपरीत था. ये रास्ता स्टीमर लगभग डेढ़ घंटे में तय करता था. वहीं पहलेजा घाट से पटना आने में स्टीमर को लगभग एक घंटे का समय लगता था. पहलेजाघाट से सुबह 5.30 में पहली स्टीमर सेवा खुलती थी. इसके बाद 8.50, 11.15, 14.00, 17.45, 21.35 और रात के 23.30 बजे आखिरी स्टीमर सेवा चलती थी. ये समय अक्टूबर 1977 में प्रकाशित न्यूमैन इंडियन ब्राड शा के अनुसार हैं. 
पूर्वोत्तर रेलवे में गोरखपुर से कोलकाता और पटना जाने के लिए यात्रियों को हाजीपुर स्टेशन के पास गंगा नदी के पहलेजा घाट के पहले ट्रेन से उतार दिया जाता था. उसके बाद स्टीमर (फेरी) में बैठाया जाता था. स्टीमर नदी पार कर महेंद्रू घाट तक जाती थी, जहां से यात्रियों को आगे जाने वाली दूसरी ट्रेन में बैठाया जाता था. यात्रियों को ट्रेन से उतारने, फेरी में बैठाने और फिर फेरी से उतार ट्रेन में बैठाने के लिए बकायदा रेल स्टाफ तैनात रहते थे.
 अत्यधिक प्रवाह के कारण गंगा नदी पर पुल नहीं बन पाते थे. ऐसे में पहलेजा से महेंद्रू घाट तक एक तरफ ट्रेन से उतार कर फेरी में बैठाकर दूसरी ओर ले जाता था. जिसके बाद दूसरी ट्रेन में बैठाकर यात्रा पूरी कराई जाती थी.
महेंदू घाट शुरू होने से पहले उत्तर बि‍हार के लोग पटना जाने के लि‍ए पहलेजा घाट से दीघा घाट स्टीमर से पार करत थे और वहां से पटना जंक्शन शटल ट्रेन से आते थे. जब 22 मार्च 1912 को बंगाल से अलग होकर पटना नया प्रांत बि‍हार और उड़ीसा की राजधानी बना तो महेंद्रू घाट पीरबहोर थाना (सि‍वि‍ल कोर्ट )के पास शि‍फ्ट कर दि‍या गया. पीडब्यूडी के जमीन को 11 नंबर 1922 को बंगाल और उत्तर –पश्चिम रेलवे को स्टीमर घाट और महेंद्रू घाट के लि‍ए रोड दिया गया. ब्रिटिश काल में जब रेलवे को वि‍कास हुआ तो पटना के रेलवे नेटवर्क से जोड़ने के लि‍ए ब्रिटिश सरकार ने महेंद्रू घाट से सोनपुर के पहलेजा घाट तक स्टीमर सेवा की नींव रखी.

सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र और बेटी संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए भेजा था महेंद्रू घाट से

 गंगा किनारे का महेंद्र घाट अशोक की पुत्री संघमित्रा का वह दृश्य उपस्थित करता है, जहां नाव में बैठी संघमित्रा ने गर्दन भर पानी में बैठे अपने पिता सम्राट अशोक के हाथों बोधिवृक्ष की शाखा को ग्रहण किया था और जहां से उसकी नौका ताम्रलिप्ति (बंगाल) तथा सिंहल के लिए खाना हुई थी. उन्हीं के नाम पर महेन्द्रू घाट पड़ा.
पाटलिपुत्र शहर (प्राचीन पटना) के गंगा नदी के दक्षिणी तट पर स्थित है. महेंदू घाट का नामकरण महान मौर्य सम्राट अशोक (269 ई. पू. से 232 ई.पू.) की पत्नी देवी, जो विदिशा के एक धनी व्यापारी पुत्री थी, के प्रथम पुत्र महेंद्र (महिन्दा) के नाम पर किया गया है. महेंद्र (महिन्दा) एवं उसकी बहन संघमित्रा अल्पआयु में ही बौद्ध भिक्षु बन गये थे. सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र को बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए महेंद्रू घाट से 246 ई.पू. में सिलोन (वर्तमान श्रीलंका) भेजा. उन्होंने वहां उपदेश दिया और राजा देवनामपिय तिषा सहित उनके हजारों अनुयायियों ने बौद्ध धर्म अपनाया. उन्होंने पुरुषों के लिए भिक्षु संघ की स्थापना की. श्रीलंका में महिंद्रा के आगमन की तिथि को आज भी पोसोन पूर्ण चन्द्र पोया दिवस (जून माह का पूर्णिमा) राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाता है.

  राजकुमारी अनुला (राजा देवनामप्रिय तिषा के भाई की पत्नी) ने अपने सैकड़ों अनुयायियों सहित भिक्षुणी संघ में सम्मिलित होने के लिए इच्छा प्रकट की. पुरुष धर्म प्रचारक को स्त्रियों के धर्म परिवर्तन संबंधी अधिकार नहीं था.लेकिन राजकुमारी संघमित्रा स्त्रियों का धर्म परिवर्तन करवा सकती थीं . अंतः महिन्दा ने राजा देवनामपिय तिषा को सलाह दिया कि श्रीलंका में भिक्षुणी संघ की स्थापना के लिए उनकी छोटी बहन संघमित्रा की सेवा ली जाये. महिन्दा ने यह भी इच्छा प्रकट की कि संघमित्रा द्वारा बोधगया से बोधि वृक्ष की शाखा का बाल वृक्ष श्रीलंका लाया जाये.

संघमित्रा बोधी वृक्ष की शाखा को गया से तमालिटी (बंगाल में) ले गयी. यहां इसे जल मार्ग से एक स्वर्ण कलश में रख कर श्रीलंका के अनुराधापुर ले जाया गया. श्रीलंका में यह बाल वृक्ष ने 2500 से अधिक वर्षों के दौरान विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लिया. श्रीलंका में संघमित्रा के आगमन की तिथि को अनडुवप पूर्ण चंद्र पोया दिवस (दिसंबर माह का पूर्णिमा) के रूप में मनाया जाता है, जिसे संघमित्रा दिवस के नाम से भी जाना जाता है.
महेंद्रू घाट सम्राट अशोक के पुत्र महेंद्र की याद दिलाती है. लगभग 40 वर्ष पूर्व तक यहां से पहलेजा घाट के बीच स्टीमर सेवा चलती थी. स्टीमर सेवा बंद हो जाने के कारण इस ऐतिहासिक घाट की रौनक समाप्त हो गयी. सम्राट अशोक के समय में भी अपने स्वर्णिम युग को पहलेजा घाट बिहार के बदलते स्वरुप को काफी नजदीक से देखा है. कभी यहां रोजाना हजारों यात्रियों की भीड़ लगी रहती थी जो बिहार के बाहर दूसरे प्रदेशों के लोग होते थे, पर अब यहां वि‍रानी है. एक समय में यह घाट व्यापारियों का प्रमुख अड्डा हुआ करता था और स्टीमर और नाव वालों की रोजाना चांदी कटती थी, साल 1982 के बाद गंगा में पुल बन जाने पर रेलवे की स्टीमर और प्राइवेट नाव की सेवा बंद हो गयी। 

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