अनूप नारायण सिंह / पटना : कोरोना काल में आपने कई बार कई चिताओं और कब्रों के चित्र जरुर देखें होंगे, नदियों में लाशें बहती भी देखी होंगी। लेकिन क्या आपने हजारों सपनों के मरने का चित्र देखा है ? यदि नहीं देखा तो देख लीजिए।ये हजारों साईकिलें उन हजारों बिहारी और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मजदूर भाईयों की हैं, जिन्हें कोरोना काल में सहारनपुर से आगे नहीं जाने दिया गया था। उनकी साईकिलें यहीं खड़ी करवाकर एक कागज का नम्बर टोकन थमा दिया गया था और कहा गया कि जब दोबारा आओगे टोकन दिखाना, साईकिल ले जाना। वही टोकन नम्बर साईकिल की गद्दी पर लिख दिया गया...लेकिन ना टोकन ही लौटा, ना साईकिल ही गई। भला कौन किराया खर्च करके बिहार से यहाँ आए और तब भी क्या यकीन कि उन्हें अपनी साईकिल मिल ही जाए...मुझे साईकिल पर लिखा 19,800 नम्बर भी मिला, तो इसका साफ अर्थ है कि कम से कम 20 से 25 हजार साईकिलें यहाँ एकत्र रही होंगी। अगर एक व्यक्ति ने अपनी साईकिल के लिए औसत 2000 रूपये भी खर्च किए होंगे तो 25000 साईकिलों का मूल्य करीब पाँच करोड़ बैठता। यह एक ऐसे वर्ग की आमदनी का हिस्सा हो जो एक-एक रूपया कमाने के लिए हजारों किलोमीटर दूर अपने घर-परिवार को छोड़कर गया है...यकीन मानिए दो वर्ष पहले जब घर लौटते इन लोगों से मुलाकात हुई थी तो इनके घुटनों में इतना दम था कि ये साईकिल से ही अपने घर पहुँच जाते लेकिन ऐसा हो नहीं सका। अब इनकी साईकिलों को एक दाम 1200 रूपये के हिसाब से खुलेआम बेचा जा रहा है। करीब 10 दिन हो गए बिकते-बिकते...अम्बाला रोड पर सस्ती साईकिलों को लूटने का खूब मेला लगा हुआ है। भला भीड़ क्या जाने ये केवल साईकिल नहीं हैं, इनमें किसी के सपने हैं, मजबूरियां हैं, अधूरे संकल्प है, छटपटाहट है, घबराहट है। इन लोगों ने साईकिल से अपना सफर देश के सबसे 'दयावान' प्रदेश पंजाब से मजबूरन शुरु किया था...फ्री में 'सम्मान निधियां' बाँटने वाली सरकारों को चाहिए था कि इन मजबूर और मजदूर भाईयों को इन्हें मिले टोकन पर इनके जिले/प्रदेश में एक-एक साईकिल वहीं दे दी जाती। मैं जब साईकिलों के विवश हुजूम को देख रहा था तो मुझे बहुत तकलीफ हुई। किसी की गद्दी, किसी का हैंडिल, किसी की घंटी छूकर वह तकलीफ, मजबूरी, वह संवेदना महसूस करने का प्रयास किया जो कभी इन्हें लेकर आने वाले का रहा होगा...मैं कुछ कर नहीं सकता क्योंकि मैं केवल महसूस कर सकता हूँ...