अपराध के खबरें

जानें शहर बनाम गांव

अनूप नारायण सिंह 

शहर में इंसान मशीन होता है सदैव चलते रहता है कभी अपने बाल बच्चों के लिए कभी परिजनों के लिए कभी उन सब के लिए जिन्होंने हजार सपने देख रखें पर खुद का सपना धीरे-धीरे मर जाता है शरीर यंत्र हो जाता है सिर्फ नोट छापने की मशीन। कंक्रीट के जंगलों में तब्दील शहर में जिंदगी 2 या 3 बीएचके के फ्लैट में सिमट कर रह जाती है तीन कमरे ही जिंदगी होते हैं और उसकी चकाचौंध और दुनिया की तमाम सुख-सुविधाओं में रहने की आदत इंसान को इस भ्रम में डाल देता है कि वह दुनिया के सर्वोत्तम सुख का आनंद ले रहा है पर जिन की जड़ गांव से जुड़ी हैं वह जरुर जानते हैं शहर मजबूरी है गांव जरूरी। शहरों में मकान ही ईट पत्थर कि नहीं बने होते लोगों के दिलों भी दिल भी पत्थर के होते हैं किसी को किसी से मतलब नहीं आप जिस अपार्टमेंट में रहते हैं आपको अपने पड़ोसियों की कोई खैर खबर नहीं रहती।आते जाते लिफ्ट में अगर कोई मिल गया तो हाय हेलो हो जाता है सुख में है दुख में है आपको उससे कोई मतलब नहीं पर गांव मे दुख सामूहिक होता है लोगों में अपनापन होता है जो मुसीबत में किसी को देखकर भागते नहीं वहां किसी की पहचान उसके पैसे से नहीं होती बल्कि उसकी सामाजिकता से होती है किसी मुसीबत में पूरा गांव एकजुट हो जाता है उस समय न जात होती है ना व्यक्ति की आर्थिक हैसियत वहां वह एक इंसान होता है जिसके लिए सभी मददगार होते हैं जबकि इससे इतर शहर में तमाम सुविधाएं रुतबा है अत्याधुनिक तरीके से आप कुछ भी अर्जित कर सकते हैं पर वह सुकून नही। जहां आप मुसीबत में पड़े हो और लोग आपकी मदद के लिए दौड़े चले आए दिन सोशल मीडिया और मेंस्ट्रीम मीडिया में ऐसी खबरें आती हैं कि अपार्टमेंट में कोई महिला या पुरुष 15 दिन पहले मर चुका था और दुर्गंध फैलने के बाद सोसाइटी वालों ने दरवाजा तोड़कर उसे निकाला यही दर्द होता है शहर का। गांव का आदमी शहर में पैसा कमाने आता है अपनी मजबूरियों से मुकाबला करने आता है पर शहर के भ्रम में ऐसा फंसता है वह चाहकर भी अपने गांव वापस नहीं लौटता उसे शहर भाने लगता है और धीरे-धीरे वह शहर के मोहजाल में फंस जाता है पर आत्मा कहीं ना कहीं गांव के उस टूटे-फूटे घर में ही कैद होती है जहां वाला लौटना चाहता है।
समय अनवरत भागता रहता है, कभी रूकता नहीं किसी के लिए भी नहीं।
दशकों पहले गांव छोड़ शहर चला आया और फिर गांव बस यदा कदा आना-जाना होता है।
जब भी लौट कर जाता हूं अपना अतीत तलाशता हूं जो जाने कहां खो गया है।
गांव के बाजार से होकर जाते कच्चे रास्ते अब पक्की सड़क मे बदल गये हैं, साइकिल की जगह मोटरसाइकिल ने ले ली है मगर दूरियां बढ गयी हैं ।।
गांव का वो पुराना मंदिर जहां जब कभी घंटी बजती तो सब जान जाते कोई परदेशी घर वापस आ गया है वहीं खडा़ है मगर अब घंटी नहीं सुनाई देती ।
अब तो हर घर के दरवाजे पर मंदिर बन गया है, भगवान करीब हो गये इन्सान दूर।
सबकुछ तो बदल गया रिश्ते नाते,प्यार मोहब्बत सबकुछ।
अब गांव एक सराय सा हो गया है कौन कब आता है कब जाता है पता ही नहीं चलता ।
अब चरणश्पर्श की जगह हाय और बाय ने ले ली है।
अब मेहमानों को छोड़ने कोई गांव की सरहद तक नहीं जाता, बस खाट से उठकर हाथ हिला देता है।
अब सावन में झूले नहीं पड़ते और ना ही कोई कजरी गाता है।
अब तो गांव के रास्ते भी पहचान बदलने लगे हैं ।
शायद मैं देखता रहा और राह बदल गयी।

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