मिथिला कला बिहार के मिथलांचल क्षेत्र की लोक कला है और 'रामायण' तथा 'महाभारत' में इसका उल्लेख मिलता है. इसकी उत्पत्ति 'कोहबर' से हुई है. कोहबर एक ऐसे कमरे को कहा जाता है, जहां मैथली शादी के दौरान रस्में और रीति-रिवाज किये जाते हैं और उस कमरे की दीवारों पर देवी-देवताओं और अन्य शुभ प्रतीकों की छवियों को चित्रित किया जाता हैं.
इसी कला को एक पहचान दिलाने वाले चेहरे का नाम है उषा झा. जिन्होनें इस कला को रोज़गार का साधन बना कर जन्म दिया पेटल्स क्राफ्ट को. उषा आज के दौर में पटना का एक बड़ा नाम है. इस काम की शुरूवात उषा ने भले ही थोड़े से शिल्पकारों के साथ की लेकिन आज उनके साथ तकरीबन 300 से अधिक प्रशिक्षित स्वतंत्र महिलाएं उनके साथ काम करती हैं. 'पेटल्स क्राफ्ट' की शुरुआत 1991 में उषा झा के घर पटना के बोरिंग रोड से हुई, जहाँ से वे आज भी काम करती हैं. इस काम की शुरूवात उन्होंने अपने घर के एक छोटे से कमरे से की थी. उषा ने थोड़े से शिल्पकारों के साथ अपने काम की शुरुआत की थी, जिनमें से दो तो उनके घर से काम करती थीं, जबकि शेष अन्य मिथिलांचल में रह कर काम करती थीं.
उनका काम अब पूरे घर में फ़ैल चुका है. रग्स पर करीने से रखे फ़ोल्डर्स, साड़ी, स्टॉल्स ग्राहकों के लिए तैयार रहते हैं. उषा जी कहती हैं, 'आज हमने आधुनिक मांगों को पूरा किया है और बैग, लैंप, साड़ी और घरेलू सामान सहित लगभग 50 विभिन्न उत्पादों पर मधुबनी पेंटिंग की है.' वे हमें एक नैपकिन होल्डर दिखाती हैं, जो उनके अमेरिकी और यूरोपीय ग्राहकों में खासा पसंद किया जाता है.
उषा झा जोकि बिहार-नेपाल सीमा पर स्थित एक गांव से ताल्लुक रखती हैं, उनकी पढाई लिखाई जिला मुख्यालय शहर पूर्णिया में हुई, कक्षा 10 से पहले ही उषा शादी के बंधन में ज़रूर बांध चुकी थीं, लेकिन कुछ पाने और कुछ कर दिखने की चाह को उन्होंने अपने अंदर हमेशा जिंदा रखा. शादी के बाद, वे पटना आ गईं, लेकिन उन्होंने अपनी पढाई जारी रखी. निजी ट्यूशन के माध्यम से, पत्राचार पाठ्यक्रम और सरकारी स्कूल से उन्होंने मास्टर डिग्री प्राप्त करने में सफलता हासिल की. 1991 में जब उनके बच्चे बड़े हो गये और उनके पास अधिक खाली समय था, तब उन्होंने कुछ करने का फ़ैसला किया और उस मिथिला कला को अपने भविष्य-निर्माण का धार बनाया, जिससे कि वे बचपन से ही परिचित थीं. और अपनी पहचान बनाने के जूनून में ही उन्होंने ये सफलता हासिल की
उषा झा कोहबर के बारे में विस्तार से बात करते हुए कहतीं हैं, कि पहले पहले परिवारों में जब कोई शादी होती, तो सबसे पहले 'कोहबर' की दीवारों की रंगाई की जाती थी. आज शादी की तैयारी हॉल की बुकिंग और मेन्यू चुनने से शुरू होती है. उन दिनों की शुरुआत कोहबर से होती थी.' इस सहज प्रतिभा का उपयोग करते हुए उन्होंने मिथिलांचल कला (जिसे मधुबनी कला भी कहा जाता है) का निर्माण शुरू किया और इस प्रकार दीवारों से उतर कर ये कला साड़ियों, कपड़ों और कागज पर जीवंत हो उठी. अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहती हैं, 'उन दिनों मैंने सोचा भी नहीं था, कि दीवारों पर उकेरी जाने वाली ये कला कमाई और परिवार चलाने का माध्यम बन सकती है, लेकिन आने वाले वर्षों में ये रोजगार का साधन बन गई.'
2008 में उषा झा ने गांवों में किये जा रहे अपने काम को औपचारिक रूप दिया तथा उन्होंने अपने गैर सरकारी संगठन, ‘मिथिला विकास केन्द्र’ का रजिस्ट्रेशन करवाया.
उनकी इस कला को देखने वालों में देसी विदेसी पर्यटकों समेत सरकारी और गणमान्य व्यक्तियों के नाम भी शामिल हैं. उन्हें अॉर्डर मिलते रहते हैं. उषा झा द्वारा प्रशिक्षित कई महिलाओं ने उन्हें छोड़ कर अपना काम भी शुरू कर लिया है और अब कई महिलों को पटना में भी प्रशिक्षित किया जा रहा है.
वे कहती हैं, 'मैंने जब शुरुआत की थी तब ऑनलाइन विक्रय की कोई अवधारणा नहीं थी. उन दिनों में हमें पूरे देश में और यहाँ तक कि विदेशों में भी यात्रा कर के स्टॉल लगाने पड़ते थे. मुझे अपने उत्पाद को बेचने के लिए बड़े पैमाने पर यात्रा करनी पड़ती थी.'विभिन्न वेबसाइट्स के माध्यम से वे अपने उत्पाद ऑनलाइन बेचती हैं, फिर भी उनका कहना है, कि 'आज भी हमारी ज्यादातर बिक्री एक दूसरे से बातचीत के माध्यम से ही होती है.' व्हाट्सएप ने कस्टमाइजेशन की सभी समस्यायों को समाप्त कर दिया है. जब पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने बिहार का दौरा किया, तो उन्हें 14 फीट लंबी एक पेंटिंग भेंट की गई थी, जो आज भी राष्ट्रपति भवन की शोभा बढ़ा रही है.
पेटल्स क्राफ्ट के अलावा उषा झा ने इन तमाम सालों में और भी अन्य भूमिकाएं निभाई हैं, जैसे पटना में एक कॉलेज के अतिथि व्याख्याता के रूप में शिक्षण, पिछले 17 सालों से बिहार महिला उद्योग संघ के सचिव का पद संभालने के साथ ही वे अनेक जरूरतमंद महिलाओं के संबल का आधार भी रही हैं. वे सभी महिलाएं जिन्होंने अपने शुरुआती दिनों में उषा से प्रशिक्षिण लिया वे अब अगुआ के रूप में उभरी हैं और जो महिलाएं अभी इस क्षेत्र में नई हैं वे अपने भविष्य में उजाले की एक नई किरण को भर रही हैं.
आने वाले दिनों में उषा झा बिहार-नेपाल सीमा के पास गांवों और कस्बों में अधिक से अधिक प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित करना चाहती हैं, जहां उन्हें लगता है कि सरकार अभी तक पहुंचने में सफल नहीं हो पायी है. वे कहती हैं, 'ये एक महत्वाकांक्षी परियोजना है और मैं अधिक से अधिक महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने के लिए इन केंद्रों की स्थापना करना चाहती हूँ.' अपनी बात को खत्म करते हुए अंत में वे दूसरों को सिर्फ ये संदेश देना चाहती हैं, कि 'यदि मैं ये कर सकती हूँ तो आप भी कर सकते हैं।