अनूप नारायण सिंह
"माई का फोन आया था। कह रही थीं कि बाबू एहू बेरी छठ पर नहीं आए। तुम्हरे बिन छठ पर कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। अइसा नौकरी काहे करते हो, जहां छठ पर छुट्टी न मिले। कहती हैं कि नौकरियो त छठिए माई के दिहल है।"जिनका बचपन किशोरावस्था गांव में बीता है और शहर में नौकरी की जंजीरों ने छठ जैसी परंपरागत पर्व से दूर कर दिया है ऊहे आदमी इस दुख को बुझता माने समझता है। पैसा कमाने बेहतर जिंदगी तलाश में शहर में आया आदमी कब अपनी जड़ों से दूर हो जाता है उसे पता ही नहीं चलता मां बाप भाई बहन रिश्ते नाते सब पीछे छूट जाते हैं भूल जाता है कि उसे अपने घर भी वापस लौटना है। शहर की मोह माया उसे बांध लेती है वह भूल जाता है उन सपनों को जिन्हें अपने कंधों पर लेकर बहुत शहर आया था इस वादे के साथ कि वापस लौटेगा फिर रहेगा अपने गांव में फिर अपने हिसाब से अपने पीपल बरगद की छांव के नीचे अपने खेतों की पगडंडियों पर अपने छप्पर पर वाले घर के ओसारा में खटिया बिछा कर दम भर नींद लेगा पर कहां कर पाता है आदमी अपने वादे को पूरा पर जब छठ के गीत उसके कानों में पड़ते हैं तो वापस लौटना चाहता है अपने गांव। आपके लिए भले छठ पर्व हो पर हमारे लिए इमोशन है।