लोकगीत जीवन के सरल, सहज और छल कपट से दूर, विचार-भाव की अभिव्यंजना है। ये गीतें जहां एक ओर पर्व-त्योहार, विवाह, जन्मोत्सव के उल्लास को दोगुनी कर देती हंै वहीं दूसरी तरफ मेहनत व पसीनें के गुणगान कर जीवन में रस का संचार कर देती हंै। साथ ही, सारा थकान दूर कर के मन को तरोताजा बना देती है। सच कहा जाय तो लोकगीत मनुष्य की जन्मजात गीत है और इसी में बसती है लोक संगीत की आत्मा।
लोकमत है कि ‘रस‘ साहित्य में विशेषतः काव्य की आत्मा है। वही लोकगीतों में रस छलकाने की अद्भुत प्रवृत्ति है जो तपती गरमी में शरीर पर ‘रसबेनिया‘ डोलाती प्रतीत होती है। लोकगीतों में नेह नाता की मिठास, और हंसी-ठिठोली की ऐसी झंकार होती है कि शरीर का रोम-रोम थिरक उठता है। आश्चर्य तब होता कि लोकगीतों में जहाॅं सरलता व भोलापन की तस्वीर झलकती है वही भरपूर साहित्यिक सौन्दर्य दिखाई देता है। साहित्य में भाव पक्ष हो या कला पक्ष, ये सब विशेषताएं लोकगीतों में दृष्टिगोचर होती हैं। ‘रस‘ ऐसा कि काठ के कलेजों वाला क्यों न हो, पत्थर हृदय क्यों न हों, इन सबको ऐसा पसीजा देता है कि सब की आंखें छलछला उठती हैं।
लोकगीतों में श्रंृगार रस, संयोग या वियोग दोनों का भाव बड़ी मार्मिकता से पिरोया मिलता है। अब भोजपुरी के ‘शेक्सपीयर‘ कहे जाने वाली सुप्रसिद्ध रंगकर्मी व कवि भिखारी ठाकुर की ‘विदेशिया‘ को उदाहरण स्वरूप देखें। रस में विरहिनी नायिका के भोलापन और उसके विरह वेदना दोनों का अद्भुत मिश्रण देखने को मिलता है। नायिका को डर है कि पूरब दिशा में यदि पति कमाने जाते हैं तो वहाॅं की महिलाएं जो सुन्दर होती हैं, वे जादूगरनी भी होती हैं। हो सके नायिका के पति को ‘तोता‘ बना के पिंजड़ा में बंद न कर दें और अपने वश में कर ले। परन्तु, विरहनी नायिका के पति अपनी पत्नी के लाख मना करने का बावजूद परदेश चला जाता है। अब विरहनी का मन में ऐसी टीस और हृदय में ऐसी हूक उठती है कि वह अनायास गीत बनकर निकल पड़ती है। जैसेः-
‘देसवा पुरूब जनि जाउ रे सजनवा।
पुरूब के पनिया खराब रे।।
उहवाॅं के गोरी सभ हवे जादूगरनी।
जइए के मरिहे कटार रे।।
सुगना बनाई दिहे, पीजड़ा में राखि लिहें।
बान्ही लिहें अंचरा के खूॅंट रे।।
हम हाथ मलते रहब दिन राति।
के पतिआई हमार दुःख रे।।
इस किस्म के अनेकानेक संयोग, वियोग या विरह के बहुतांे भाव लोकगीतों में मौजूद हैं। भोजपुरी भाषा के क्षेत्रों में शादी-विवाह के उपलक्ष्य पर औरतों द्वारा गीत गाने की परम्परा रही है। वे लोग घर में तो स्वांग, मनोरंजन, डोमकच आदि नृत्य व गीतों में मगन हो जाती हैं। उनके द्वारा गाये जाने वाले लोकगीतों में नायक के प्रेम में डूबी नायिका-नायक से मिलने का आमंत्रण, देती अपने प्रेमरोग के इलाज हेतु निवेदन करती हुयी गाती है-
‘रसिया तू हउअ के कर, हमरो पे तनिका ताक।
बहुते नजर फेरवल हमरो पे तनिका झाॅंक।।
कलियन के सेज राख पत्ता से हवा कर द।
हम प्रेम रोगी बानीं, तनिका त दवा कर द।।
इस प्रकार का नेह-निमंत्रण लोकगीतों में विविधता की सबूत है।
लोकगीतों में प्रकृति जुड़ाव बहुत गहरा है। सूरज, चाॅंद, कौआ, हंस, मोर, चकोर सब से आदर भाव और आत्मीयता से जुड़े भावों का लोकगीतों के प्राणवायु है। इसकी एक बानगी देखें-
‘बोलेला मुंडरिया पर कागा
पिया के घर आवन होई।
अइहें बलम परदेसी
जिनिगिया सोहावन होई।
विवाह, बच्चें के जन्मोत्सव के अवसर पर घर-परिवार और सगे सम्बंधियों व रिश्तेदार तक सीमित होते हैं परन्तु सार्वजनिक रूप से गाये जाने वाले लोकगीतों में कजरी, होली, चइती आदि में गजब का मिठास होता है। फागुन के लोकगीतों में ‘जोगिरा‘ या ‘पहपट‘ ऐसे ही लोकगीत है-
‘आम मोजराई गइले
महुआ फुलाइल मन अगराई गइले ना----।
देह नेहिया के रस में
रसाई गइले ना - ----।
होली की तरह, ‘कजरी‘ को भोजपुरी क्षेत्रों में एक लोकप्रिय लोकगीत माना गया है। वर्षाऋतु में प्रकृति की एक जादूई रूप सौन्दर्य में नहाई दिखती है। आसमान काले काले बादलों से भर जाता है। पुरवा हवा के शोर और बारिश के जोर से मोर वनों में नाचने व थिरकने लगते हैं और तब टंग जाता है अमराई पर झूला। सम्पूर्ण वातावरण आनंदमय व रसमय हो जाता है। फिर तो, सावन के ऐसे सुहावन रूप में रूपवतियों की कजरी जब हवा में उड़ती है तो ऐसा प्रतीत होता है मानो कि वह लोकगीत हृदय में उतर आया है।
1. ‘आइल सावन सोहावन सखिया
वन में नाचे मोर हे-----
बादर गरजे, बिजुरी चमके
पवन मचावे शोर हे----।‘
2. ‘कइसे खेले जाइबू सावन में कजरिया
बदरिया घीरी आइल ननदी
दादुर मोर पपीहा बोले
पीऊ पीऊ सुनि के मनवा डोले
भींजी पनिए में पीअरी चुनरिया
बदरिया घीरी आइल ननदी।‘
लोकगीतों में गाथा गीतों का अनुपम स्थान है। लोकगाथाओं में आल्हा, लोरिकायन, सोरठी-वृजाभार की कथा, बिहुआ की कथा (विहुला बलाखेन्द्र) आदि अत्यन्त प्रसिद्ध है। एक से बढ़कर एक बिरहाए और पूरबी की तो बात ही निराली है। ‘पूरबी‘ का लोकगीतों में बड़ा मोल-महत्व है। भोजपुरी भाषा में पूरबी के बादशाह ‘महेन्दर मिसिर‘ का लिखे ‘पूरबी‘ का कोई जोड़ नहीं। कमाल की ‘पूरबी‘ लिखी है महेन्दर मिसिर ने जो अन्यत्र दुर्लभ है-
‘अंगुरी में डंसले बिया नगीनीया रे
ए ननदी पिया के बोला द
दीयरा जरा द तनी, पिया के बोला द---।‘
पूर्वांचल में लोक आस्था का महापर्व ‘छठ पूजा‘हैं। इसके प्रति असीम आस्था की बानगी लोकगीतों में दिखती है। छठ पूजा के प्रत्येक विधान में लोकगीत जुड़ा हुआ है। इस पूजन के अवसर पर जब महिलाएं मिल कर छठी मईया के गीत एक सुर में गाती हैं तो मन प्राण में अत्यंत खुशी का सहज संचार होने लगता है। इसी विधान में एक जगह छठी मईया अपने घाट को पूरा साफ-सुथरा नहीं देख कर शिवजी पर क्रोधित हो जाती है।। शिव जी उनका मान-मनौवल करते हैं उस समय छठी मईया और शिवजी में संवाद इस लोकगीत में है-
‘कोपी कोपी बोलेली छठिय माता, सुनू ए महादेव
मेरा घाटे दुनिया उपजी गइलें, मकरी बिआई गइले,
हॅंसी हॅंसी बोलेले महादेव, सुनी ए छठीअ मइया
रउआ घाटे दूभिया छिलाई देबो, मकरी उजारी देबो।
गोबरे लिपाई देबो, चनन छिडि़कि देवो, दूधवे अरग देबो।
घीउए हुमाद देबो, नरियर फरग देवो, फलवे अरग देबो
सेनुरे भरन देबो, पीअरी पेन्हन देबो, बतीए रोसनी देबो।
इस लोकगीत में छठी मईया के क्रोध के शिवजी को दिखाया गया है और शिवजी उन्हें मनाने की बात कर रहे हैं दोनों चीजें मिलके जहाॅं भक्ति रस का संचार करते हैं ‘वही‘ प्रेम से सब कुछ संभव हो सकता है‘ इसका का संदेश दिया गया है। छठ पूजा के अवसर पर ‘कोसी‘ भरने की परम्परा है उसका एक दृश्य इस लोकगीत में देखेंः-
‘राति छठिय मइया रहलीं रउआ कहॅंवां
जोड़ा कोसिय भरन भइले तहॅंवा
केरा ठेकुआ चढ़न भइले जहवाॅं।।‘
लोकगीत में विविधता के भाव का अभाव नहीं। आॅंखों को भिंगोने वाला ‘निरगुन‘ है तो हृदय को हिलाने वाला का ‘समदन है‘ यानि बेटी का विदाई गीत। जहाॅं निरगुन आत्मा और परमात्मा के मिलन को अनेकों के बिम्ब के सहारे प्रस्तुति की जाती है। बेटी की विदाई गीत से कौन सा इंसान नहीं होगा जो नहीं हिल जाता है। एक ‘निरगुन‘ देखिएः-
‘जेहि दिन पूरा करार हो गाई
ओहि दिन सुगना फरार हो जाई।
माई बाबू धइले रहिहें, धइले रहिहें माई
आई जे बोलावा तब रोके ना रोकाई
महल दुआरी कुल्ह उजार होइ जाई।‘
लोकगीत में बेटी के विदाई वाला हृदय को मानो आंसुओं के सैलाब में उतारने जैसा है। जब बेटी के विदाई के समय गाया जाता है-
‘बेटी भोरे भोरे जब ससुराल जइहे
सबका अंखियां में अंसुआ उतार जइहे
भोर गइया के खिआई, सांझे सझवत के देखाई
एने बाबू रोअत होइहें, ओने रोअत बाड़ी माई
सबका अंखिया के भोर भिनसार जइहें।‘
बेटी भोरे भोरे - ------------।
लोकगीत अधिकतर समूह रूप् में गाया जाता है इसी से सहयोग भाव का जन्म होता है और इसी से सिखने की भावना उपजती है। इन गीतों में कोई दाॅंव पेंच नहीं होता बल्कि मधुरता, रस और लालित्य बरसता रहता है। लोकगीत आज भी जीवन के सुन्दर बिम्ब चित्र दिखाते हुए अपना प्रभाव बनते हंै। आजकल अश्लीलता और नकली कथा कहानियों ने लोकगीत के मिठास का भाव को निगल रहा है। अब जो इसे नहीं बचाया गया तो नई पीढ़ी लोकगीतों के हमारे ऊपर क्या प्रभाव डालती है उसके जादू को नहीं समझ पाएगी। हमें अपनी परम्परा और संस्कृति को सहेज-समेट कर रखने वाले लोकगीतों के मर्म को समझना होगा और उसको बचाने का सार्थक प्रयास करना होगा
©अनूप नारायण सिंह