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बालिका वधु,अब बनी डॉक्टर! ससुराल वालों के सपोर्ट से पूरा किया ख्वाब, गांव में बनाना चाहती है अस्पताल

संवाद 
चौमूं का एक परिवार उदाहरण है. उनके लिए जो बहू को, बेटी नहीं मानते और उनके अधिकारों से वंचित रखते है. ये कहानी रूपा की ही नहीं बल्कि उस परिवार की भी है जो बड़े जतन से 8 साल की उम्र में उसे ब्याह कर लाया, पढ़ाया लिखाया और डॉक्टर बनाया.

चौमूं राजस्थान । डॉक्टर रूपा यादव तब 8 साल की नन्ही बच्ची थी,तब उसे परंपराओं के अनुसार बालिका बधू बना दिया गया. उस उम्र में वह जानती ही नहीं थी कि शादी ब्याह क्या होता है. उसे पता था तो सिर्फ इतना कि उसे नए-नए रंग बिरंगे कपड़े मिल रहे हैं .उसे लग रहा था कि उसके साथ कुछ न कुछ अनोखा तो हो रहा है. 

17 साल बाद, यही नन्ही मासूम सी रूपा, निवाणा गांव की डॉक्टर बहू है. उसकी अपनी लगन, ससुराल वालों के साथ ने उसे उस मुकाम पर पहुंचाया है कि वो अब अपने गांव को कुछ लौटाना चाहती है,वह चाहती है कि अपने गांव में वह एक अस्पताल बनवाए ताकि गांव वालों कोअच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था मिल सके.

2005 में बाल विवाह- 

राजस्थान के करीरी गांव में जन्‍मी रूपा यादव का बालविवाह 2005 में हुआ. पिता किसान मालीराम यादव गरीब थे इसलिए बेटी का ब्याह रचा दिया. नन्ही बच्ची पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़े होने का ख्वाब पाले बैठी थी. ससुर कानाराम यादव और सास बिदामी यादव ने पहले बच्ची की इच्छा को महत्व नहीं दिया. लेकिन फिर उसकी छुपी प्रतिभा को पहचाना, स्कूल में लगातार मिल रहे रिवॉर्ड्स और अवॉर्ड्स ने मासूम बहू के दिल में छुपे सपने को महसूस करने में मदद की. उन्होंने जाना कि पढ़ाई को लेकर वो कितनी गंभीर और समर्पित है. 

बस फिर क्या था पूरा परिवार बहूरानी को शिक्षित करने और उसकी दिली ख्वाहिश को पूरा करने में जुट गया. उसके मायके वालों ने भी बेटी के जज्बातों को समझा और हर संभव मदद की उसको आगे बढ़ाने में. नतीजतन सबके सपोर्ट से रूपा ने आठवीं, दसवीं और बारहवीं में 84 फीसदी अंक प्राप्त किए.

डॉ रूपा परिवार का साथ- 

डॉक्टर बनने के लिए नीट क्वालिफाई करना पड़ता है. सालों की कोशिशों के बाद सफलता मिलती है और कितने तो ऐसे हैं जो राहें ही अलग कर लेते हैं. रूपा तो जुझारू थी! उसने खूब तैयारी की. इसमें भी ससुराल का साथ मिला.पति शंकर लाल और उनके बड़े भाई (जीजा) बाबूलाल ने तमाम सामाजिक बाध्यताओं को दरकिनार कर बहू की पढ़ाई करवाई. 

पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए दोनों ने खेती करने के साथ-साथ टेम्पो चलाया. रूपा को दो साल कोटा स्थित एलन करियर इंस्टीट्यूट से कोचिंग कराई. इस पढ़ाकू छात्रा ने भी उन्हें निराश नहीं किया.

घर परिवार और पढ़ाई सबके साथ न्याय- 

रूपा ने 11वीं क्लास में प्राइवेट स्कूल में दाखिला लिया. एडमिशन ले तो लिया लेकिन स्कूल में अटेंडस कम थी. घर के कामकाज भी करने पड़ते थे. जिम्मेदारियों से कभी पल्ला नहीं झाड़ा. खेत भी गई. पशुपालन भी किया. दिक्कत ये भी थी कि गांव से तीन किलोमीटर स्टेशन तक पैदल जाना होता था, वहां से बस से फिर तीन किलोमीटर की दूरी पर स्कूल था.

रूपा अब और तब दो बार नीट क्लियर- पहली बार 2016 मे नीट की परीक्षा दी तो रैंकिंग के अनुसार महाराष्ट्र स्टेट मिला. लेकिन परिवार वहां जाने देना नहीं चाहता था. रूपा ने भी उनका मान रखा और नहीं गई. 

लगातार दूसरे साल 2017 में जब नीट का परिणाम आया तो रूपा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उसकी AIR 2283 और ओबीसी कैटेगरी में 658 वीं रैंक हांसिल की. कुल नम्बर 603 मिले. इस बार मनचाही मुराद पूरी हुई और परिवार की सहमति भी.

डिलीवरी के बाद दिया इम्तहान- 

रूपा अब बदल गई है लेकिन संघर्षों और परिवार के प्यार को नहीं भूली. जिम्मेदारियों की बात करती है तो वो समय भी याद करती है जब MBBS थर्ड ईयर में गर्भवती हुई और लोगों ने छुटकारा पाने की सलाह दी. रूपा नहीं मानी और उसने बच्चे को जन्म दिया. पढ़ाई के प्रति वफादारी भी नहीं छोड़ी और डिलीवरी के एक महीने बाद ही परीक्षा में बैठी.खेतों में भी काम किया.

गांव को लौटाना चाहती है कर्ज-

रूपा बताती हैं कि पढ़ाई के दौरान ही उनके सगे चाचा भीमाराम यादव की हृदयाघात से मौत हो गई. इसकी एक वजह सही समय पर इलाज न मिल पाना रहा. तभी प्रण लिया कि बॉयलोजी ले डॉक्टर बनूंगी. 12वीं की परीक्षा दी और 84 प्रतिशत अंक आए. फिर आर्थिक संकट सामने आ गया. इंस्पायर अवार्ड हासिल किया. बीएससी में एडमिशन लिया. फिर नीट क्वालिफाई किया और अब गांव ने जो दिया उसे लौटाने की सोच के साथ आगे बढ़ रही है.

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