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बिहार की राजनैतिक चुनौतियों का उत्तर है केंद्रीय शक्ति का निर्माण",चुनावी सिंघावलोकन2022 वर्ष के

अनूप नारायण सिंह 

गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव हाल ही में संपन्‍न हुए, जिनके परिणाम 8 दिसंबर को घोषित हुए। इन परिणामों का हमारे समाज के संदर्भ में विश्लेषण करना समीचीन होगा ताकि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में हमारी वर्तमान स्थिति को समझकर आगे के मार्ग निर्धारण के लिए सैद्धांतिक आधार तैयार करने की समझ समाज में विकसित हो सके। वैसे तो लोकतंत्र में चुनावों में सफलता-असफलता के अनेक पहलू और कारक होते हैं जिनका संपूर्ण विश्लेषण यहां संभव नहीं, पर सामाजिक दृष्टिकोण से हमारे लिए महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर चिंतन व चर्चा आवश्यक है। हिमाचल प्रदेश की बात करें तो *यहां कुल 68 सीट में से 20 अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षित हैं। शेष 48 में से 30 सीट पर राजपूत उम्मीदवार जीते हैं। यहां दोनों दलों की ओर से 28-28 राजपूत उम्मीदवार मैदान में थे। हिमाचल की राजनीति को गहराई से देखें तो हमारे सामाजिक चरित्र की एक विशेषता उभर कर सामने आती है और वह है सभी को साथ लेकर चलने की। हिमाचल प्रदेश में हम संख्या और प्रभाव की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समूह है। आज जहां सभी स्थानों पर संख्यात्मक रूप से कम उपस्थिति वाली अनेक जातियां भी अपना स्वयं का राजनीतिक दल बनाकर जातीय हितों को ही सर्वोच्च प्राथमिकता दे रही हैं, वहां हिमाचल में हमारी 36 प्रतिशत संख्या होते हुए भी हमने अपना अलग दल बनाकर जातिवाद करने के बजाय सबको साथ लेकर चलने की अपनी परंपरा को निभाया और यही कारण है कि वहां हमें सभी जातियों का सहयोग मिलता है। इसीलिए वहां अब तक के सात में से छह मुख्यमंत्री राजपूत रहे हैं। यद्यपि सभी को साथ लेकर चलने की हमारी विशेषता केवल हिमाचल प्रदेश तक सीमित नहीं है बल्कि यह हमारी सार्वभौमिक विशेषता और पहचान है लेकिन हिमाचल चूंकि हमारी बहुसंख्यकता वाले कुछ प्रदेशों में से एक है, इसलिए वहां यह अधिक स्पष्टता से दिखाई देती है।हिमाचल प्रदेश में भाजपा की हार का प्रमुख कारण गैर राजपूतो को राजपूतो की परंपरागत सीटों को उसके घनघोर ब्राह्मणवादी अध्यक्ष श्री जे०पी०नड्डा द्वारा देना हुआ,जो 21 जितने वाली सीटों पर बागियों द्वारा भाजपा को हार का सामना करना पड़ा और कार्यरत सरकारी कर्मियों को पुरानी पेंशन योजना को नकारना उनकी हार की ताबूत में अंतिम कील साबित हुई ,सर्वविदित है कि हिमाचल वासियों के मुख्य आय के स्रोत नौकरी,पर्यटन और सेव की खेती ही है। भाजपा यदि अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री जे०पी०नड्डा को यदि नही हटाती है तो भविष्य में 2025 के लोकसभा चुनावों में इनका सत्ताविहीन होने की संभावना ज्यादा है।

वहीं, गुजरात के चुनाव परिणामों को देखें तो वहां 182 सीट पर हमारे समाज के कुल 14 विधायक जीत कर आए हैं जिनमें 12 भाजपा से, 1 कांग्रेस से और 1 विधायक निर्दलीय है। यहां भाजपा और कांग्रेस, दोनों दलों ने 12-12 राजपूत उम्मीदवारों को टिकट दिए थे जो राज्य में हमारी संख्या और अन्य मतों को प्रभावित करने की क्षमता की तुलना में बहुत कम है। *दोनों दलों में इतना कम प्रतिनिधित्व मिलने के कारणों पर हमें चिंतन अवश्य करना चाहिए। कांग्रेस की तरफ से कम प्रतिनिधित्व मिलने का कारण यही है कि अब तक हमें भारतीय जनता पार्टी का कोर वोटबैंक माना जाता रहा है और कांग्रेस द्वारा राजपूत उम्मीदवारों को टिकट दिए जाने पर हमारे समाज का मतदाता कांग्रेस की ओर स्थानांतरित होगा, इसका कोई मजबूत संकेत हम नहीं दे पाए हैं। इसलिए कांग्रेस की ओर से कम प्रतिनिधित्व खेदजनक तो है लेकिन पूरी तरह से अस्वाभाविक भी नहीं है। दूसरी तरफ, विडंबना यह है कि भारतीय जनता पार्टी की ओर से कम प्रतिनिधित्व मिलने का भी यही कारण है कि हमारा उसकी ओर स्थायी झुकाव रहा है।यानी राजपूत इस राजनीतिक दल के गुलाम मानसिकता से ग्रसित होते दिखते हैं।हिन्दू सनातन धर्म मे राजपूतो और कायस्थों का उदय ही हिंदुत्व का स्वर्णिम काल भी रहा है जिसने अरब और तुर्क की उठी मुसलमानों की आंधियो को चट्टानों की तरह डट कर मुकाबला भी किया है। आक्रामकता की इस झुकाव का कारण राष्ट्रवाद, संस्कृति जैसे विषयों के प्रति हमारा लगाव और अतीत में कांग्रेस द्वारा हमारे प्रति किया गया दुर्भावनापूर्ण व्यवहार भी है। लेकिन आज एक दल के प्रति हमारा यह अशर्त झुकाव हमारे लिए ही समस्या बन रहा है। दबाव समूह की राजनीति के इस दौर में जब तक हम अपने समर्थन के साथ न्यायसंगत शर्तें लगाकर अपने विकल्पों को खुला रखना नहीं सीखेंगे, तब तक हमें दोनों दलों से उपेक्षा ही मिलेगी।* हमें यह समझना होगा कि राजनीतिक दलों के लिए सत्ता ही साध्य है और जाति और समुदाय उनके लिए सत्ता प्राप्ति के साधन मात्र है। *राजनीतिक दलों के लिए आज जाति केवल एक समीकरण है, उसकी भारतीय सामाजिक संरचना को स्थायित्व देने वाली रीढ़ के रूप में पहचान उनसे विस्मृत हो चुकी है।* एक तरफ तो इसी विस्मरण के कारण वे जाति व्यवस्था को कोसते हुए उसे समाप्त करने का लक्ष्य बिना उसकी अव्यावहारिकता और दुष्परिणामों को समझे लेकर चलते हैं, दूसरी ओर अपनी पूरी राजनीति जातीय समीकरणों के आधार पर संचालित करते हैं और इस दौरान विभिन्‍न जातियों के बीच वैमनस्य को बढ़ाने का कार्य करते हैं। 

यह तो राजनीतिक दलों की बात है लेकिन समाज के रूप में हमारा दृष्टिकोण कैसा है यह भी समझने की आवश्यकता है। हमारे भारत वर्ष जाति प्रधान देश है और जाति आधारित समाज में भी अक्सर यह राय प्रकट की जाती है, विशेषकर सोशल मीडिया पर कि जाति के आधार पर ही आज की राजनीति चलती है इसलिए हमें भी पूरी तरह से जातिवादी होकर अपने राजनीतिक हित साधने का प्रयास करना चाहिए। अपनी जाति और अपने समाज के प्रति रागात्मक संबंध और स्नेह के कारण यह तर्क स्वाभाविक रूप से उचित भी लग सकता है लेकिन इसके पीछे विवेकशील चिंतन और दूरदृष्टि का अभाव है।निश्चित रूप से अन्य लोग ऐसा ही कर रहे हैं लेकिन अन्यों के ऐसा करने से वह करने योग्य कर्म नहीं बन जाता। यदि सभी जातियां अधिक से अधिक प्राप्त करने की होड़ में समाज, राष्ट्र और मानवता के प्रति अपने दायित्व को भूल कर केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति को ही प्राथमिकता देंगी तो राष्ट्र और समाज का बिखरना तो निश्चित है ही पर जिस जाति के लिए यह सब किया जा रहा है वह भी नष्ट होने से बच नहीं सकेगी। आज राजनीति विकृत अवस्था में हैं लेकिन इस विकृति को ठीक करने की बजाय हम स्वयं विकृत होकर उसके साथ समायोजित होने का प्रयास करें तो वास्तव में यह कदम आत्मघाती ही होगा। अपने चरित्र की विशेषता को खोकर राजनैतिक और आर्थिक लाभ प्राप्त करना घाटे का सौदा ही नहीं बल्कि अपने जातीय अस्तित्व को समाप्त करने की ओर बढ़ना है। 

स्पष्ट है कि आज हमारे सामने अपने चरित्र और स्वधर्म को खोये बिना जाति और समुदाय आधारित राजनीति के बीच अपने आपको राजनैतिक रूप से मजबूत बनाने के साथ ही मूल्यहीनता की राजनीति में हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठित करने की दोहरी चुनौती है। *आज बिहार में कोई भी राजनीतिक दल या नेता हमारे दुख,दर्द,पैरवी के लिए तैयार नही दिखते। इस चुनौती का उत्तर केवल ऐसे संगठन के निर्माण में ही है जो हमारे समाज की केंद्रीय शक्ति के रूप में तो कार्य करे ही, साथ ही जो समाज को अपने स्वधर्म और कर्तव्य के पालन में प्रवृत्त करने में भी सक्षम हो। संगठन का एक ध्येय, एक मार्ग, एक ध्वज, एक नेता के सिद्धांत पर खड़ा संगठन उसी आवश्यकता की पूर्ति करता है। आएं, हम सब मिलकर समाज के ऐसे संगठन की केंद्रीय शक्ति के निर्माण में अपना सहयोग अर्पित करें, जिससे केवल राजनैतिक ही नहीं बल्कि सभी क्षेत्रों में हमारे समाज के सामने उपस्थित चुनौतियों को ध्वस्त किया जा सके। ऐसा होने पर ही हमारा समाज राष्ट्र, संस्कृति और मानवता की रक्षा के अपने उस दायित्व को निभा सकेगा, जो हमारे पूर्वजों से हमें थाती के रूप में प्राप्त हुआ है।*

शास्त्रों में भी वर्णित है,- *त्रेतायां मंत्र-श्क्तिश्च ज्ञानशक्तिः कृते युगे द्वापरे युद्ध-शक्तिश्च, संघशक्ति कलौ युगे ।।*

*सत्ययुग में ज्ञान शक्ति, त्रेता में मन्त्र शक्ति तथा द्वापर में युद्ध शक्ति का बल था । किन्तु कलियुग में संगठन की शक्ति ही प्रधान है।*

राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं। लेकिन इस चुनाव में विपक्ष ने राजनीतिक मर्यादा का जिस तरह अतिक्रमण किया वह पहले नहीं देखा गया था।2023 के चुनाव परिणाम ने बता दिया कि मतदाताओं के दिल को केवल नि:स्वार्थ काम से जीता जा सकता है, अनर्गल और खोखली बातों से नहीं।

सच तो यह है कि आज की राजनीति अवसरवाद का शीर्ष पराकाष्ठा है, जातिवाद और साम्प्रदायिकता की पुनर्स्थापना है, भ्रष्टाचार और कदाचार का विसर्जन है, अनैतिकता और संस्कारहीनता का विसर्जन है। 

ईर्ष्या, द्वेष और घृणा की राजनीति लम्बी नहीं चल सकती। दीर्घकलीन राजनीति के लिए विराट विजन, दृढ़ इच्छाशक्ति, विकास का रोडमैप और कार्यक्रमों की फेहरिस्त चाहिए। यही नहीं, इन सबके साथ ही सबका सम्मान करने का विवेक और सबको साथ लेकर चलने की क्षमता भी होनी चाहिए,

क्षात्र धर्म से ही शक्तियों का पुनर्निर्माण होगा,एकता आएगी,भलमानसहीता आएगी,सबका भला होगा,समरसता आयेगी।

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