अपराध के खबरें

चिट्ठियां हो तो हर कोई बांचे

अनूप नारायण सिंह 

ठीक से याद नहीं कि कब की बात है, पर एक जमाना था जब मैंने दूसरों की ढेरों चिट्ठियाँ लिखी थीं। पड़ोस की अनेक अनपढ़ चाचियां, और दूर कहीं पंजाब-गुजरात मे काम करने वाले चाचे... उनके बीच की एकमात्र कड़ी "चिट्ठी" और चिट्ठी का लेखक मैं... कसम वसन्त की, तब चिट्ठी लिखने से अधिक मोहक काम होता था लिखवाने वाली के चेहरे को पढ़ना! लाज के मारे जो बातें लिखवाई नहीं जा सकती थीं, आँखें जैसे वो सारी बातें कह देती थीं।दस मिनट तक सोचने के बाद हल्की सी मुस्कुराहट के साथ यह कहना कि, "लिख दीजिये कि रमपतिया फुआ की बड़की देआदिन की छोटी बहू की कलकत्ता वाली भउजाई को फिर बेटा हुआ है!"तब छठवीं क्लास का वह लड़का समझ नहीं पाता था कि इस खबर का अर्थ क्या है, पर आज का यह लेखक समझता है उस खबर की पीर... कसम से, यदि दर्द की संवेदना सच में कहीं उतरता था तो उन चिट्ठियों की उन उलझी हुई पंक्तियों में ही उतरता था। पता नहीं पंजाब-गुजरात वाले पतिदेव कितना समझ पाते थे...
      एक पड़ोस के भइया कलकता में नौकरी करते थे। तब भउजी की पच्चीसों चिट्ठियां लिखीं थी हमने! हर पन्द्रहवें दिन एक चिट्ठी... बदले में भउजी अरुई की झुरी खिलाती थी। उनकी चिट्ठियों में एक बात कॉमन होती थी तब! हर चिट्ठी का अंत इसी प्रश्न के साथ होता था कि "कब आइयेगा?" भइया जब गाँव आ कर फिर चले जाते, तो पन्द्रह दिन बाद की पहली ही चिट्ठी में फिर वही सवाल होता था, "कब आइयेगा?"
      अब लगता है कि भउजी को भइया के आने में जितना मजा नहीं आता था, उससे अधिक उन्हें बुलाने में आता था। किसी को पाने से अधिक उसे पाने की प्रतीक्षा आनंद देती है। मोबाइल के तमाम दुष्प्रभावों में एक यह भी है, कि मोबाइल चिट्ठी को खा गया... अब कोई अनपढ़ भउजाई किसी देवर से मुस्कुरा कर यह नहीं कहती कि "लिख दीजिये बड़की भइस बिया गयी है, फ़ेंसा खाने का मन हो तो चार दिन की छुट्टी ले कर आ जाएं..."अब मोबाइल वाली भौजाइयाँ चिट्ठी नहीं लिखवातीं!

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