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ले बाबुल घर आपनो मैं चली पिया के देश !

अनूप नारायण सिंह 
बाबुल मोरा नैहर छूटल जाय - यह ठुमरी आपने बार-बार सुनी होगी। यह ठुमरी क़रीब डेढ़ सौ सालों से गायको-गायिकाओं की पहली पसंद रही है। कुंदन लाल सहगल ने 1937 की फिल्म 'स्ट्रीट सिंगर' में गाकर इसे लोकप्रियता का नया आसमान दिया था। कल देर रात तक यह ठुमरी सुनते-सुनते यह जिज्ञासा हुई कि इसकी रचना किसने और कब की होगी। गूगल पर खोजबीन की तो पता चला कि दर्ज़नों दूसरी लोकप्रिय ठुमरियों के साथ इस ठुमरी को भी रचा और संगीतबद्ध किया था अवध के दसवें और आखरी नवाब वाज़िद अली शाह ने। उन्हें ठुमरी का जन्मदाता माना जाता है। वे खुद बेहतरीन ठुमरी गायक थे। उनके दरबार में हर शाम संगीत की महफिलें सजती थीं जिनमें ठुमरी को कत्थक नृत्य के साथ गाया जाता था। अंग्रेजों द्वारा अपनी रियासत से निष्कासित कर दिए जाने के बाद 'बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय' गाते हुए उन्होंने अपने लोगों को अलविदा कहा था। 

वाज़िद अली शाह संगीत के अलावा नृत्य, साहित्य तथा कलाओं के भी उत्कट प्रेमी थे। शास्त्रीय नृ्त्य शैली कत्थक के विकास और लोकप्रियता में वाजिद अली शाह के दरबार की सबसे ख़ास भूमिका रही थी। कत्थक के लिए उन्होंने कैसरबाग में एक परीखाने की स्थापना की थी। ठाकुर प्रसाद और दुर्गा प्रसाद उनके दरबारी नर्तक और नृत्य गुरु थे जिनसे उन्होंने नृत्य की शिक्षा ली थी। उन्होंने भारत के प्रसिद्ध शास्त्रीय नर्तक पंडित बिरजू महाराज के पूर्वजों को संरक्षण और उन्हें रहने के लिए लखनऊ में एक घर दिया। कत्थक नृत्य के विकास में इस परिवार की बड़ी भूमिका रही थी। वाज़िद अली शाह ने अपने जीवन काल में हिन्दुओं और मुसलमानों की साझा संस्कृति के विकास की अथक कोशिशें कीं। उन्होंने राधा और कृष्ण पर कई बेहतरीन नज़्में भी लिखीं और उनकी प्रेम-कथा पर नाटक की भी रचना की। इस नाटक को लखनऊ में रहस की तर्ज पर खेला जाता था। वाजिद अली उसमें कृष्ण की भूमिका खुद किया करते थे। कृष्ण की अपनी भूमिका के लिए वे इतने लोकप्रिय हुए कि लोग उन्हें श्याम पिया के नाम से बुलाते थे !

वाज़िद अली शाह की रियासत के अधिग्रहण और लखनऊ से उनके निष्कासन को ज़ायज़ ठहराने के लिए अंग्रेजों ने उनकी विलासप्रियता के जाने कितने झूठे किस्से फैलाए थे। उन्हें अय्याश शासक साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी उन्होंने। अपने इस चरित्रहनन का उन्हें आख़िरी दम तक अफ़सोस रहा था । निर्वासन के बाद नवाब वाजिद अली शाह ने कलकत्ता में पनाह ली जहां 1887 में 65 साल की उम्र में मटियाबुर्ज़ में उनका देहावसान हुआ। वे ख़ुद बड़े देशभक्त तो थे ही, उनकी बेगम हजरत महल का शुमार देश के महान स्वतंत्रता सेनानियों में होता है i अंग्रेजों की तमाम साजिशों के बावजूद अपनी रियाया में वे कितने लोकप्रिय थे, इसका अंदाज़ा आप उस दौर के इस लोक गीत से लगाईए जो लोग उनके लखनऊ से निष्कासन के बाद गाया करते थे - हाय तुम्हरे बिन बरखा ना सोहाय / अल्ला तुम्हे लाए हाय अल्ला तुम्हें लाए / हम पर कृपा करो रघुनन्दन वाज़िद अली मोरा प्यारा / गलियन गलियन रैयत रोवै / हटियन बनिया बजाज रे / महल में बैठी बेगम रोवै / डेहरी पर रोवै खवास रे !' 

हिंदी तो क्या, उर्दू के भी कम लोगों को ही पता है कि 'अख्तर' उपनाम से वाज़िद अली शाह एक बेहतरीन शायर भी थे। उन्होंने सैकड़ों उम्दा गजलों और नज्मों की रचना की जिनमें से ज्यादातर रचनाएं अब लुप्तप्राय हैं ! उन्हें प्रकाश में लाने का काम अभी बाकी है। शायरी का उनका स्तर क्या था इसे जानने के लिए उनके कुछ अशआर देखिए - 'साकी कि नज़र साकी का करम / सौ बार हुई, सौ बार हुआ / ये सारी खुदाई ये सारा ज़हां / मयख्वार हुई, मयख्वार हुआ / जब दोनों तरफ से आग लगी / राज़ी-व-रजा जलने के लिए / तब शम्मा उधर, परवाना इधर / तैयार हुई, तैयार हुआ।' तो आईए, कला, संगीत और साहित्य को समर्पित इस अद्भुत और भारतीय इतिहास के अलबेले शासक को याद करें उनकी एक देशभक्तिपूर्ण नज़्म की पंक्तियों से ! 

सारे अब शहर से होता है ये 'अख़्तर' रुखसत 
आगे बस अब नहीं कहने की है मुझको फुर्सत 
हो न बरबाद मिरे मुल्क़ की यारब खलकत 
दर-ओ-दीवार पे हसरत की नज़र करते हैं 
रुख्सते अहले वतन, हम तो सफ़र करते हैं !

(नीचे वाज़िद अली शाह के आख़िरी दिनों की एक दुर्लभ तस्वीर)

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