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बच्चों को भगवान का रुप क्यों कहते हैं

अनूप नारायण सिंह 
कभी गौर करिए 2 से 4 के बच्चों पर उनकी वो मनभावन मुस्कान उनके वो सरल हाव भाव किसी की भी गोदी मे सहज ही चले जाना काले गोरे का भेद नहीं न ही उच नीच जात पात से मतलब जो मिला खा लिया जहां मन हुआ सो लिया,न मन में किसी के लिए ईष्र्या न बैर न किसी के लिए षड्यंत्र निष्कपट एक सरल व मधुर हृदय।
अब हम बात करते हैं ईश्वर को पाने की या उसके दर्शन की तो आप बच्चों के गुणों से अपने गुणों मिलाकर देखें कोई से भी गुण मिलते हैं क्या,आप खुद के लिए न्यायाधीश बनकर देखिए आप को अपने ही भीतर इतनी गलतियां मिलेंगी की क्या कहने,जब आप में ईश्वर से मिलने के गुण ही नहीं है तो आप बिना गुण के कैसे ईश्वर को पा सकते हैं 
जबकी बिना किसी गुण के तो हम अपना जीवन भी ठीक से नहीं बिता सकते ।
वैसे जहां तक मुझे समझ आता है कि ईश्वर कोई देखने या प्रमाणित करने की वस्तु नहीं है ईश्वर आत्मसात करने की वस्तु है उनके कहे मार्ग चलना, आत्मचेतना को जगाना,और अपने जीवन को परिवर्तित करने का नाम ईश्वर है जब आप ईश्वर की कहीं बातों को सुनने, समझने का प्रयास केरेगें तो आप महसूस करेंगे कि आप में और दुनिया में और जो भी प्राणी है उनमें कोई विशेष अन्तर नहीं है तब आप में एक तिसरे नेत्र का उदय होगा जो आपके शरीर तो कहीं नहीं दिखेगा पर आप उससे सारी दुनियां को अच्छी तरह देख व समझ पायेंगे और ये क्षण भी आपके जीवन में किसी चमत्कार से कम नहीं होगा ।

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