प्रशांत किशोर ने बोला कि कई लोगों को ऐसा लगता है कि 1977 में सारे विपक्षी दल एक साथ आकर उन्होंने इंदिरा गांधी को हरा दिया था, ये उन लोगों की सबसे बड़ी बेवकूफी है.1977 में विपक्षी दलों के एक साथ आने से इंदिरा गांधी नहीं हारी, उस वक्त इमरजेंसी एक बड़ा मुद्दा था, जेपी का आंदोलन भी था. इमरजेंसी अगर लागू नहीं की जाती, जेपी मूवमेंट नहीं होता तो सारे दलों के एक साथ आने से भी इंदिरा गांधी नहीं हारती. वर्ष 1989 में भी हमने देखा कि बोफोर्स मुद्दे को लेकर राजीव गांधी की सरकार को हटाकर बीपी सिंह सत्ता में आए थे. दल तो बाद में एक हुए, पहले बोफोर्स मुद्दा बना.
बोफोर्स के नाम पर देश में आंदोलन हुआ, लोगों की जनभावनाएं उनसे जुड़ी.
चुनावी रणनीतिकार ने बोला कि देश के स्तर पर सियासत में क्या हो रहा है, विपक्ष वाले क्या कर रहे हैं, बीजेपी वाले क्या कर रहे हैं, ये मेरे सरोकार का विषय नहीं है. सामान्य नागरिक के जैसे आप सुन रहे हैं, वैसे ही मैं भी सुन रहा हूं. मान लीजिए, नीतीश कुमार कोलकाता में बैठ जाएं, तो उससे वहां रहने वाले लोगों और उनकी जनभावना पर भला क्या प्रभाव पड़ेगा. ममता बनर्जी अगर आज समस्तीपुर में आ जाएं, तो समस्तीपुर की जनता को उससे क्या मतलब है कि ममता बनर्जी आकर बोले या स्टालिन. विपक्षी एकत्व लोकतंत्र की एक प्रक्रिया है. लोकतंत्र मजबूत होना चाहिए, लेकिन, मेरी समझ से इसमें चुनावी कामयाबी तभी मिलेगी जब इन दलों के पास प्रोग्राम होगा, जिसको लेकर वो जनता के बीच जा सकते हैं, जनता का समर्थन मिले, तभी उसका परिणाम चुनावी नतीजों में दिखेगा.आगे प्रशांत किशोर ने कहा कि 2019 में भी सारे दल एक साथ हुए थे, बावजूद इसका कोई प्रभाव नहीं दिखा था, जिस भूमिका में आज नीतीश कुमार दिखने का प्रयत्न कर रहे हैं, करीब करीब इसी भूमिका में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू थे. देश की बात तो छोड़ दीजिए अपने आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू बुरी तरह हार गए थे. नीतीश कुमार हो या कोई भी, जो विपक्ष को एक साथ लाने का प्रयास कर रहा है जब तक जनता के मुद्दों पर सहमति नहीं होगी तब तक मुझे नहीं लगता कि इन प्रयासों का कोई प्रभाव होगा. हां, ये अवश्य है कि इतने सारे दल एक साथ आएंगे, तो मीडिया के लिए जिक्र का विषय होगा, समाज का एक वर्ग जो सामाजिक-राजनीतिक तौर पर जागरूक है उनके लिए उत्सुकता का विषय हो सकता है.