ऐसे में अगर आधा भी किया जाता है तो 32% आरक्षण की मांग हो सकती है. वहीं अनुसूचित जाति का पहले से 17% है अब इसकी आबादी 20% के करीब दिखाई गई है तो जितनी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में जितनी संख्या उतनी आरक्षण का प्रावधान है तो इसे बढ़ाकर 17 के बजाय 20% करने का फैसला लिया जा सकता है.
वहीं अनुसूचित जनजाति एक प्रतिशत आरक्षण था अब उसकी आबादी दो प्रतिशत के करीब है तो उसे भी एक प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है.
सभी को जोड़ दिया जाए तो 54% होते हैं. ऐसे में केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की बात हो सकती है. इससे किसको फायदा और किसको नुकसान होगा इसके प्रश्न पर राजनीति विशेषज्ञ अरुण कुमार पांडे ने बताया कि निश्चित तौर पर अति पिछड़ा अपनी अधिकार की बात करेंगे. क्योंकि 1990 के बाद बिहार में निरंतर पिछड़ा का वर्चस्व रहा है, आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव और सीएम नीतीश कुमार दोनों पिछड़ा जाति से आते हैं. यही दोनों बिहार के निरंतर मुख्यमंत्री रहे हैं. अति पिछड़ा जाति पिछड़ा से 9% अधिक है ऐसे में वे अपनी अधिकार की बात कर सकते हैं.अभी बिहार में लालू प्रसाद यादव 1990 की राजनीति की चाल पर चल रहे हैं, लेकिन 1990 की राजनीति और अभी के राजनीति में बहुत सारे परिवर्तन हुए हैं. उस समय पिछड़ा, अति पिछड़ा अनुसूचित जाति सभी को इकट्ठा करने में लालू प्रसाद यादव और जनता दल कामयाब हुए थे. फॉरवर्ड बनाम अन्य जातियों की लड़ाई थी और उस वक्त लड़ाई कांग्रेस से थी. लेकिन अभी हालात कुछ बदले हुए हैं. अभी लड़ाई पिछड़ा और अति पिछड़ा की है. क्योंकि केंद्र में प्रधानमंत्री भी अति पिछड़ा जाति से आते हैं. बिहार में भी बीजेपी अति पिछड़ा और पिछड़ा को आगे कर कर चल रही है. और बता दे कि अगड़ी जाति को आगे नहीं किया जा रहा है ऐसे में बीजेपी भी वही लड़ाई लड़ रही है जो लालू प्रसाद यादव लड़ रहे थे.