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भारतीय राजनीति 2014 से पहले के दौर में लौट रही है, ब्रांड मोदी और भाजपा के लिए इसके क्या मायने हैं

संवाद 

 हरियाणा चुनाव में मिली हार के कुछ दिनों बाद, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी सहित शीर्ष कांग्रेस नेतृत्व ने महाराष्ट्र के नेताओं के साथ बैठक की. पार्टी के चुनाव रणनीतिकार सुनील कनुगोलू, जिन्हें हरियाणा में मिली हार के लिए आलोचना झेलनी पड़ी थी, ने सुझाव दिया कि पार्टी के चुनावी वादों में उन मुफ्त सुविधाओं (फ्रीबीज़) में पर्याप्त वृद्धि शामिल होनी चाहिए, जो वर्तमान में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली महायुति सरकार द्वारा महाराष्ट्र के लगभग हर वर्ग को दी जा रही हैं या जिसका वादा किया गया है. 

बैठक में मौजूद एक नेता ने बाद में मुझे बताया कि उनकी पार्टी कैसे अपनी राह खो रही है. उन्होंने कहा, "आप इस बार मुफ्त सुविधाओं को दोगुना करना चाहते हैं. फिर क्या? अगले चुनाव में तिगुना?" उन्होंने तर्क दिया कि चूंकि, अब हर पार्टी ऐसा कर रही है, इसलिए "मुफ्त की रेवड़ियां" अब खेल बदलने वाली रणनीति नहीं रह गई हैं - खासकर विपक्षी दलों के लिए. उनका मानना था कि जब प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद की बात आती है, तो सत्तारूढ़ दलों को फायदा होता है.* मैं इससे पूरी तरह सहमत हूं. कांग्रेस ने 2019 के चुनाव घोषणापत्र में NYAY योजना के तहत हर महीने 6,000 रुपये देने का वादा किया था, जो पीएम-किसान सम्मान निधि के तहत लोगों को मिलने वाली राशि से 12 गुना अधिक है, लेकिन यह काम नहीं आया. बेशक, 2019 के चुनावों में अन्य कारक भी काम कर रहे थे.

 मुफ्तखोरी, वंशवाद, चुनाव

2022 2022 के मध्य तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'रेवड़ी संस्कृति' के खतरों के बारे में बात कर रहे थे. हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की सफलता की इसमें भूमिका हो सकती है. नवंबर 2023 तक, भाजपा ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में रेवड़ियां बांटने और वादों में कांग्रेस को पछाड़ दिया, जबकि प्रधानमंत्री दूसरी तरफ देखते रहे. हालांकि, वह 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले रेवड़ी घोषित करने के प्रलोभन में नहीं पड़े. कई भाजपा नेता निजी तौर पर इस कारक को भाजपा के 240 सीटों पर खिसकने के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं. अब, प्रधानमंत्री ने रेवड़ी के बारे में बोलना बंद कर दिया है क्योंकि भाजपा विधानसभा चुनावों में रेवड़ियों के मामले में विपक्ष से काफी आगे निकल चुकी है. आदर्श आचार संहिता से पहले महीने में महाराष्ट्र कैबिनेट द्वारा लिए गए 146 फैसलों को देखिए.
उनमें कई बुनियादी ढांचे की परियोजनाएं भी शामिल थीं, लेकिन महायुति नेताओं की बात सुनिए. उनके भाषणों का मुख्य फोकस रेवड़ी पर है. वह भाजपा के 'विकास' मॉडल को परिभाषित करने लगे हैं. प्रधानमंत्री मोदी विकास परियोजनाओं का उद्घाटन करते रहते हैं, लेकिन उनकी पार्टी के नेताओं को चुनावी तौर पर रेवड़ी ज़्यादा आकर्षक लगती है.

आइए एक और बड़े मुद्दे पर नज़र डालते हैं, जिसका इस्तेमाल बीजेपी ने 2013-2014 के बाद से विपक्ष पर हमला करने के लिए किया - वंशवाद की राजनीति. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्तारूढ़ पार्टी दूसरे दलों से वंशवादी नेताओं को शामिल करती रही. जब तक एक चायवाला पीएम चेहरा था, तब तक इन वंशवाद को विपथन/विचलन या उनके द्वारा निर्धारित उच्च लक्ष्यों को प्राप्त करने के साधन के रूप में देखा जाता था. बीजेपी इसे एक नए स्तर पर ले जा रही है. इसलिए, हरियाणा में हाल ही में गठित मंत्रिपरिषद में दो प्रमुख वंशवाद के लोगों को जगह मिली - श्रुति चौधरी, पूर्व सीएम बंसीलाल की पोती और बीजेपी सांसद किरण चौधरी की बेटी और आरती सिंह राव, पूर्व सीएम राव बीरेंद्र सिंह की पोती और केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह की बेटी.झारखंड में बीजेपी ने पूर्व सीएम और मौजूदा ओडिशा के राज्यपाल रघुबर दास की बहू पूर्णिमा दास को मैदान में उतारा है. ज़रा सोचिए. दास के नेतृत्व में 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार हुई.* वह अपनी सीट भी नहीं बचा पाए. हाल ही में वे तब सुर्खियों में आए जब उनके बेटे ललित कुमार ने राजभवन के एक अधिकारी की पिटाई की. ओडिशा में भाजपा की सरकार होने के कारण, वैसे भी इस मामले को दबाना ही थी. महाराष्ट्र और झारखंड में भाजपा उम्मीदवारों की सूची देखिए. वह भाजपा के वंशवाद के प्रति बढ़ते प्रेम और निर्भरता का एक उचित विचार देते हैं - चाहे वह घरेलू हों या आयातित.

: मोदी सरकार के यू-टर्न्स* *जगजाहिर राज का पर्दाफाश करते हैं- कि BJP विश्वसनीयता के संकट का सामना कर रही है

 मोदी, विचार

 भाजपा के लिए तीसरा बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार के खिलाफ उसका अभियान था. 'वाशिंग मशीन' के टैग ने इसे धो दिया है. फिर, दुनिया में भारत के स्थान को लेकर आकांक्षापूर्ण राजनीति थी, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी वैश्विक कूटनीति के उच्च मंच पर बैठे थे.* पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा से इस बारे में बहुत कुछ सुनने को नहीं मिला और ज़ाहिर है कि विधानसभा चुनावों में भी इस बारे में बात करने का कोई मतलब नहीं है.

मूल रूप से, 2014 के बाद से राजनीति पूरी तरह बदल गई है. यह पुराने दिनों की राजनीति में लौट रही है जब सब कुछ जाति, धर्म, फ्रीबीज़ और इसी तरह के बारे में था. ऐसा नहीं है कि ये कारक पहले काम नहीं करते थे, लेकिन वह सभी नरेंद्र मोदी की बड़ी छवि में समाहित हो जाते थे, जो. वह एक बड़े विचार, एक आकांक्षापूर्ण राष्ट्र के बड़े सपनों का प्रतिनिधित्व करते थे. यहां तक कि जब लोग दलबदल के जरिए सरकारों को गिराते, विपक्ष-केंद्रित भ्रष्टाचार जांच और सांप्रदायिक एजेंडे को देखते थे, तब भी मोदी के कारण बीजेपी को वोट करते थे. वह कमियां या निंदा से परे थे. वो भाजपा को दूसरी पार्टी से अलग करते थे. राज्यों में बीच-बीच में चुनावी असफलताओं को जाने दें. मोदी एक विचार के रूप में जनमानस में हमेशा जीवंत रहे.
पिछले लोकसभा चुनावों के बाद, भाजपा इस विचार की क्षमता के बारे में कम आश्वस्त दिखती है. या ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि यह इस विचार का हर चीज़ जो जनक रहा उसको कमजोर कर रही है - रेवड़ी से लेकर वंशवाद और सभी समावेशी राजनीति और शासन तक.

 आज पुरानी राजनीति पर वापस जाना व्यावहारिक और वास्तविक राजनीति लग सकता है. हरियाणा के नतीजों को नवीनतम पुष्टि के रूप में उद्धृत किया जा सकता है.

 हो सकता है भाजपा महाराष्ट्र और/या झारखंड भी जीत सकती है, लेकिन 2014 से पहले की राजनीति में वापस जाने में काफी जोखिम है. यह लंबे समय में भाजपा और तत्काल संदर्भ में ब्रांड मोदी को नुकसान पहुंचाएगा.* कोई यह तर्क दे सकता है कि भाजपा मोदी के बाद के दौर के लिए तैयारी कर रही है और विधानसभा चुनावों में उनकी घटती अपील को स्वीकार कर रही है, लेकिन क्या पार्टी इस निष्कर्ष पर बहुत जल्दी नहीं पहुंच रही है?

 भाजपा की राजनीतिक चक्र समाप्ति की ओर

 फ्रीबीज़ ,पर्स उन्मूलन से लेकर बैंक राष्ट्रीयकरण, गरीबी हटाओ के नारे और बांग्लादेश मुक्ति से लेकर आपातकाल और बेलची तक हाथी की सवारी तक, इंदिरा गांधी भी एक विचार का प्रतिनिधित्व करती थीं, भले ही उनके प्रशंसकों और आलोचकों की नज़र में यह कितना भी विरोधाभासी क्यों न हो. उनके जाने के बाद, राजनीति बदल गई और यह तब भाजपा की वजह से नहीं था. एक बार जब अंतर करने वाला तत्व खत्म हो जाता है, तो कई कारक और ताकतें खेल में आ जाती हैं. किसने सोचा था कि राजीव गांधी, जो कंप्यूटर और दूरसंचार क्रांति लाने वाले व्यक्ति थे, ऐतिहासिक जनादेश मिलने के बाद अपने पहले कार्यकाल के दौरान मुस्लिम-हिंदू तुष्टिकरण की राजनीति में अपना रास्ता खो देंगे?

 इसलिए, मोदी के बाद के दौर के लिए तैयारी करने का तरीका ब्रांड मोदी को कमजोर करना नहीं है, बल्कि इसे आधार बनाकर आगे बढ़ाना और एक और बड़ा विचार सामने लाना है, लेकिन इसके लिए भाजपा को राजनीतिक कल्पना की ज़रूरत है.पार्टी के पास अभी भी बढ़त हो सकती है, भले ही वह पुरानी राजनीति में जाते हुए दिख रही है. सत्ताधारी पार्टी को विपक्षी खेमे में कल्पना की कमी से भी मदद मिलाती है. वह मोदी के विचार का मुकाबला नहीं कर पाए हैं. अगर भाजपा खुद इस विचार पर भरोसा खो देती है और राजनीति को 2014 से पहले के दौर में ले जाती है, तो विपक्ष के लिए इससे अच्छी बात नहीं हो सकती.

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